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________________ ९२ : तीर्थकर, बुद्ध और अवतार : एक अध्ययन उन निगंठों या निग्रन्थों के प्रमुख को पालि में नाटपुत्त और संस्कृत में ज्ञातृपुत्र कहा गया है। इस प्रकार यह सुनिश्चित हो जाता है कि नाटपत्त या ज्ञातृपुत्र जैन सम्प्रदाय के अन्तिम तीर्थंकर वर्धमान एक ही व्यक्ति हैं। बौद्ध त्रिपिटक और अन्य बौद्ध साहित्य से यह स्पष्ट हो जाता है कि बुद्ध के प्रतिद्वन्द्वी वर्धमान (नाटपुत्त) बहुत ही प्रभावशाली थे और उनका धर्म काफी फैल चुका था। महावीर युग की धार्मिक मान्यताएं ईसा पूर्व को छठी-पाँचवी शताब्दी धार्मिक आन्दोलन का युग था। उस समय भारत में ही नहीं सम्पूर्ण एशिया में पुरानी धार्मिक मान्यतायें खण्डित हो रही थी और नए-नए मतों या सम्प्रदायों का उदय हो रहा था। चीन में लाओत्से और कन्फ्यूसियस, ग्रीस में पाइथागोरस, सुकरात और प्लेटो तथा ईरान और परसिया में जरथुस्त्र आदि अपनी नई-नई दार्शनिक विचार-धारायें प्रस्तुत कर रहे थे। ऐसे समय में जबकि प्रत्येक मत 'सयं सयं पसंसत्ता गरहंता परं वयं' अर्थात् अपने पन्थ एवं मान्यताओं को श्रेष्ठ बताकर दूसरों की निन्दा कर रहा था, उस समय विभिन्न मतों के आपसी वैमनस्य को दूर करने के लिए वर्धमान महावीर ने अनेकान्त दर्शन की विचारधारा प्रस्तुत की थी। बौद्ध ग्रन्थ सुत्तनिपात में उल्लेख है कि उस समय ६३ श्रमणसम्प्रदाय विद्यमान थे। जैन ग्रन्थ सूत्रकृतांग, स्थानांग और भगवती में भी उस युग के धार्मिक मतवादों का उल्लेख उपलब्ध है। सूत्रकृतांग में उन सभी वादों का वर्गीकरण निम्न चार प्रकार के समवसरण में किया गया है १. इन्डियन सेक्ट आफ दी जैनास्, पृ० २९ । २. वही, पृ० ३६ । ३. सूत्रकृतांग १।१।२।२३ । ४. यानि च तीणि यानि च सट्टि । सुत्तनिपात, समियसुत्त । ५. (अ) स्थानांग ४।४।३४५ । (ब) भगवती ३०।११८२४ । ६. किरियं अकिरियं विणियंति तइयं अन्नणामहंसु च उत्थमेव । सूत्रकृतांग १।१२।१। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002127
Book TitleTirthankar Buddha aur Avtar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshchandra Gupta
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1988
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size14 MB
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