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तीर्थंकर की अवधारणा : ८५
का चाचा (वप्प शाक्य) निर्ग्रन्थ श्रावक था।' अब यहाँ यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि ये निर्ग्रन्थ कौन थे? यह महावीर के अनुयायी तो हो नहीं सकते क्योंकि महावीर बुद्ध के समसामयिक हैं। इससे इस बात की पुष्टि होती है कि महावीर और बुद्ध से पहले निर्ग्रन्थों की कोई परम्परा अवश्य रही होगी, जिसका अनुयायी बद्ध का चाचा था । अतः हम कह सकते हैं कि बुद्ध और महावीर के पूर्व पाश्र्वापत्यों की परम्परा रही होगी। पालित्रिपिटक साहित्य में पार्श्वनाथ की परम्परा का एक और प्रमाण यह है कि सच्चक का पिता निग्रन्थ श्रावक था। सच्चक द्वारा महावीर को परास्त करने का आख्यान भी मिलता है। इससे सिद्ध होता है कि सच्चक और महावीर समकालीन थे। अस्तु सच्चक के पिता का निग्रन्थ श्रावक होना यह सिद्ध करता है कि महावीर के पूर्व भी कोई निग्रन्थ परम्परा थी, जो पार्श्वनाथ की ही परम्परा रही होगी ?
मज्झिमनिकाय के 'महासिंहनादसुत्त' में बुद्ध ने अपने प्रारम्भिक कठोर तपस्वी जीवन का वर्णन करते हुए तप के चार प्रकार बतलाए हैंतपस्विता, रूक्षता, जुगुप्सा और प्रविविकृता । जिनका उन्होंने स्वयं पालन किया और पीछे उनका परित्याग कर दिया था। इन चारों तपों का महावीर एवं उनके अनुयायियों ने पालन किया था । बुद्ध के दीक्षा लेने के समय तक महावीर के निग्रन्थ सम्प्रदाय का प्रवर्तन नहीं हुआ था। अतः यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि यह निग्रन्थ सम्प्रदाय अवश्य ही महावीर के पूर्वज पार्श्वनाथ का रहा होगा।
यह सम्भव है कि प्रथम महावीर ने पापित्यों की परम्परा का अनुसरण कर एक वस्त्र ग्रहण किया हो, किन्तु आगे चलकर आजीवक परम्परा के अनुरूप अचेलता का अनुगमन कर लिया हो । उत्तराध्ययन में स्पष्ट रूप से महावीर को अचेल धर्म और पार्श्वनाथ को सचेलक धर्म का प्रतिपादक कहा गया है। सूत्रकृतांग, उत्तराध्ययन, भगवती आदि में मिलने वाले पाश्र्वापत्यों के उल्लेखों से और उनके द्वारा महावीर की परम्परा स्वीकार करने सम्बन्धी विवरणों से निर्विवाद रूप से यह सिद्ध
". भारतीय संस्कृति में जैनधर्म का योगदान, मध्यप्रदेश शासन-साहित्य परिषद्,
भोपाल, सन् १९६२, पृ० २१ । २. अर्हत् पार्श्व और उनकी परम्परा पृ० ४ । ३. जैन साहित्य का इतिहास, पूर्वपीठिका, पृ० २१२-२१३ । ४. उत्तराध्ययन २३।२५-३० ।
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