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________________ ८६ : तीर्थकर, बुद्ध और अवतार : एक अध्ययन होता है कि पार्श्वनाथ एक एतिहासिक व्यक्ति थे, काल्पनिक नहीं । पाव एवं उनकी परम्परा की ऐतिहासिकता तथा उनकी दार्शनिक और धार्मिक मान्यताओं के सन्दर्भ में पंडित सुखलालजी ने अपने ग्रन्थ चार तीर्थंकर में, पंडित दलसुखभाई ने जैनसत्यप्रकाश में प्रकाशित पार्श्व पर लिखे अपने शोध लेख में, श्री देवेन्द्रमुनि शास्त्री ने अपने ग्रन्थ भगवान् पावं, एक समीक्षात्मक अध्ययन में और डॉ. सागरमल जैन ने अपने ग्रन्थ अर्हत पाव और उनकी परम्परा पर पर्याप्त रूप से प्रकाश डाला है विद्वान् पाठकगण उसे वहाँ देख सकते हैं। यद्यपि यह आश्चर्यजनक है कि हिन्दू और बौद्ध साहित्य में कहीं भी पार्श्व के नाम का उल्लेख नहीं है जबाक प्राचीन जैन आगम साहित्य के अनेक ग्रन्थ यथा ऋषिभाषित, सूत्रकृतांग, भगवती, उत्तराध्ययन कल्पसूत्र आदि में पार्श्व और उनके अनुयायियों के उल्लेख मिलते हैं । ऋषिभाषित आदि तो ईसा पूर्व तीसरी शताब्दी की रचना है उसमें इनका उल्लेख इनकी ऐतिहासिकता को प्रमाणित करता है। बौद्ध पालि त्रिपिटक साहित्य में भी जिन चातुर्यामों का उल्लेख मिलता है उनका सम्बन्ध पार्श्वनाथ को परम्परा से है। पार्श्वनाथ ने विशेषरूप से देह-दंडन की प्रक्रिया की आलोचना की तथा ज्ञान सम्बन्धी और विवेकयुक्त तप को हो श्रेष्ठ बताया। जैनपरम्परा में पुरुषादानीय के रूप में इनका बड़े आदर के साथ उल्लेख पाया जाता है। जैनपरम्परा में पार्श्व को महावीर से भी अधिक महत्त्व प्राप्त है। उन्हें विघ्न-हरण करनेवाला बतलाया गया है। उनके यक्ष का नाम पार्श्व बतलाया गया है और उसकी आकृति हिन्दू परम्परा के गणेश के समान मानी गई है जो कि विघ्नहारी देवता हैं। पार्श्वनाथ का विहार-क्षेत्र अमलकप्पा, श्रावस्ती, चम्पा, नागपुर, साकेत, अहिच्छत्र, मथुरा, काम्पिल्य, राजगृही, कौशाम्बी, हस्तिनापुर आदि रहा है । जैनमान्यता के अनुसार इन्होंने सम्मेत शिखर पर्वत पर सौ वर्ष की आयु में परिनिर्वाण प्राप्त किया था। आज भी सम्मेतशिखर पाश्वंनाथ पहाड़ के नाम से जाना जाता है। पाश्वनाथ के सोलह हजार भिक्ष और अतिस हजार भिक्षुणियाँ थी। त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र में इनके १० पूर्व भवों का उल्लेख है । यह माना जाता है कि महावीर ने पार्श्वनाथ की परम्परा को मान्यताओं को देश और काल के अनुसार संशोधित कर नए रूप से प्रस्तुत किया । प्राचीन जैन साहित्य को देखने पर यह भी ज्ञात होता है कि प्रारम्भ में पार्श्वनाथ और महावीर की परम्परा में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002127
Book TitleTirthankar Buddha aur Avtar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshchandra Gupta
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1988
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size14 MB
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