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प्रागैतिहासिक काल की जैन साध्वियों एवं विदुषी महिलाएँ : २५ से रथनेमि के सारे कलुषित मनोरथ मिट्टी में मिला दिये । रथनेमि के मोह को दूर करने के लिये अधोलिखित घटना का उल्लेख प्राप्त होता है
"राजीमती ने दूसरे दिन रथनेमि के आने से पहने भरपेट दूध पिया और उसके आने के पश्चात् वमनकारक मदनफल को नासारन्ध्रों से छकर सूघा और रथनेमि से कहा कि शीघ्र ही एक स्वर्ण-थाल ले आओ। रथनेमि ने तत्काल राजीमती के सामने सुन्दर स्वर्ण-पात्र रख दिया। राजीमतो ने पहले पिये हुए दूध का उस स्वर्ण-पात्र में वमन कर दिया और रथनेमि से गम्भीर दृढ़ स्वर में कहा-“देवर ! इस दूध को पी
जाओ"। इससे लज्जित तथा निराश होकर रथनेमि संसार से विरक्त हो गया और दीक्षा ग्रहण कर नेमिनाथ की सेवा में रैवतीचल की ओर निकल पड़ा।
नेमिनाथ की प्रव्रज्या की बात सुन कर राजीमती ने स्वयं भी प्रवज्या ग्रहण करने का दृढ़ निश्चय कर लिया और किसी तरह माता-पिता की अनुमति लेकर अपने श्यामल बालों का लुंचन कर संयम मार्ग की ओर बढ़ने लगी। उस अवसर पर लंचित केशवालो जितेन्द्रिया सुकुमारी राजीमती से वासुदेव श्रीकृष्ण आशीर्वचन के रूप में बोले-“हे कन्ये! जिस लक्ष्य से दीक्षित हो रही हो, उसकी सफलता के लिए संसार-सागर को शीघ्रातिशीघ्र पार करना । राजीमतो ने दोक्षित होकर बहुत-सी राजकुमारियों एवं अन्य सखियों को भी दीक्षा प्रदान की। शीलवती होने के साथ-साथ नेमिनाथ के प्रति धर्मानुराग से अभ्यास करते हुए राजीमती बहुश्रुता भी हो गई थी। ___ तीर्थंकर अरिष्टनेमि को केवलज्ञान प्राप्त होने पर अनेक मुमुक्षुओं ने प्रभु चरणों में दोक्षा ग्रहण की। उस समय यक्षिणी आदि अनेक राजकुमारियों ने भी प्रभु-चरणों में दोक्षा ग्रहण को । यक्षिणी आर्या को श्रमणी संघ की प्रवर्तिनी नियुक्ति किया गया है। महारानी शिवादेवी, रोहिणी,
१. उत्तराध्ययन सूत्र अध्याय २२ २. आचार्य हस्तीमलजो-जैनधर्म का मौलिक इतिहास-भाग १, पृ० २०० ३. संसार सायरं घोरं, तर कन्ने लहुँ लहुँ-उत्तराध्ययन सूत्र, अ० २२
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