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२४ : जैनधर्म की प्रमुख साध्वियाँ एवं महिलाएं बाद यह विवाह का समस्त आयोजन तो व्यर्थ ही कियागया। मुझे अत्यन्त दुःख तो इस बात का है कि आप जैसे समर्थ महापुरुष भी वचन भंग करेंगे तो सारी लौलिक मर्यादायें नष्ट हो जायेंगी"। इन वाक्यों से उस समय की सामाजिक मान्यता तथा विवाह-पद्धति की महत्ता का बोध होता है । पुनः राजोमती दुःखी होकर कहने लगीं-“सखि ! इसमें नेमिकुमार का कोई दोष नहीं, मुझे तो यह सब मेरे ही किसी घोर पाप का प्रतिफल प्रतीत होता है। अवश्य ही मैंने पूर्व जन्म में किसी चिर-प्रणयी का विच्छोह कर उसे विरह की वीभत्स ज्वाला में जलाया होगा । जिसके फलस्वरूप मैं अभागिन अपने प्राणाधार प्रियतम के कर-स्पर्श का भी सुखानुभव नहीं कर सकी"। इस करुण क्रन्दन को देखकर सखियों ने उसे समझाते हुए यादव कुल के किसी दूसरे सर्वगुण सम्पन्न कुमार को पति रूप में चुनने की सलाह दी किन्तु राजोमती घायल शेरनी की तरह अपनी सखियों पर गरज पड़ी और बोलीं,-"कन्या का पाणिग्रहण एक बार ही होता है, मैं नेमिकुमार को अपने मन और वचन से वरण कर चुकी हूँ
और अपने गुरुजनों द्वारा भी उन्हें दी जा चुकी हूँ। अतः मैं तो अपने प्रियतम नेमिकुमार की पत्नी हो चुकी। उन्होंने विवाह विधि से मेरे कर का स्पर्श नहीं किया है-पर मुझे व्रतदान देने में तो उनकी वाणी अवश्यमेव मेरे अन्तःस्तल का स्पर्श करेगी"। इस तरह काम भोग के त्याग एवं व्रत-ग्रहण की दृढ़ प्रतिज्ञा से सहेलियों को चुप करा कर राजीमती नेमिनाथ के ही ध्यान में निमग्न रहने लगो। इस नव-परिणिता के हृदय की आशाओं तथा उमंगों का अति करुण वर्णन कई विद्वान् कवियों ने लेख तथा छंदों में किया है, मुख्यतः इनमें राजीमती की अतृप्त भावनाओं का हृदयग्राही चित्रण प्रस्तुत किया गया है। जैन धर्म में इस सती साध्वी को आदर्श नारी का स्थान दिया गया है ताकि भविष्य में नारियाँ इन्हीं के आदर्शों पर चल कर अपना जीवन उन्नत कर सकें।
नेमिकुमार के तोरण से लौट जाने पर उनका छोटा भाई रथनेमि राजीमती पर मोहित हो गया। कई प्रकार के भेंट, प्रलोभन देकर वह राजीमती, को अपनी ओर आकर्षित करने की कोशिश करने लगा पर इस संकल्प पर दृढ़ रहने वाली महिला ने चतुराई तथा युक्तिपूर्ण फटकार
१. आचार्य हस्तीमलजी---जैनधर्म का मौलिक इतिहास-भाग १,
पृ० १९३-१९५ २. वही, भाग १, पृ० १९५ .
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