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________________ प्रागैतिहासिक काल की जैन साध्वियां एवं विदुषी महिलाएँ : २३ राजीमती' राजीमती बाईसवें तीर्थंकर अरिष्टनेमि की वाग्दत्ता, सत्यभामा (कृष्ण की रानी) की लघु भगिनी तथा राजा उग्रसेन व रानी धारिणी की पुत्री थी । उस समय के सर्वगुण सम्पन्न यादव कुमार से वाग्दान हो जाने के कारण राजीमती अपने भाग्य को धन्य समझती थी । जब नेमिकुमार साक्षात् कामदेव के समान अपूर्व बारात सजाकर महाराजा उग्रसेन के प्रासाद की ओर बढ़े, तो उस समय बाल-वृद्ध सभी त्रिभुवन मोहक नेमिकुमार को देखकर राजीमती के भाग्य को सराहने लगे । सखियाँ वर को देखते ही दौड़ कर राजीमती से कहने लगीं - " राजदुलारी ! तुम परम भाग्यवती हो जो श्री नेमिनाथ जैसा त्रैलोक्य तिलक वर तुमसे पाणिग्रहण करेगा । हम वर दर्शन की प्रबल उत्कण्ठा को रोक नहीं सकते हैं, अतः हे सखी ! तुम भी लज्जा का परित्याग कर अति कमनीय वर को देखने चलो !" राजीमती महल के झरोखे से अपने प्रियतम का रूप तथा बारात की साजसज्जा का दृश्य देखकर अपना अहो भाग्य मानने लगी । उसी समय सहसा राजीमती की दाहिनी आँख और भुजा फड़कने लगी तथा अनिष्ट की आशंका से उसका हृदय धड़कने लगा और पल मात्र में ही अपार जनसमूह ने देखा कि अहिंसा और करुणा की प्रतिमूर्ति नेमिकुमार हजारों पशुओं को जीवनदान देते हुए पुनः लौट रहे हैं । राजीमती अपने प्राणेश्वर नेमिकुमार के लौट जाने और उनके द्वारा प्रव्रजित होने के निश्चय को जानकर वृक्ष से कटी हुई लता की तरह निश्चेष्ट होकर धरती पर गिर पड़ी । सखियों के प्रयत्न से होश में आते ही राजीमती हृदयद्रावी करुण विलाप करते हुए बोली - "हे नरशिरोमणि, तुमने विवाह की स्वीकृति देकर मेरे मन में आशालता अंकुरित क्यों की और असमय में ही उसे उखाड़ कर क्यों फेंक दिया ? महापुरुष अपने वचन को जोवन भर निभाते हैं । जिस दिन आपने वचन से मुझे स्वोकार किया उसी दिन मेरा आपके साथ पाणिग्रहण हो चुका, उसके १. उत्तराध्ययन २२, ४३, कल्पसूत्रवृत्ति ३१३ २. (क) आ० हेमचन्द्र त्रिषष्टिशलाकापुरुष - पर्व ८, सर्ग ९, पृ० ३७३, ३८१ (ख) आ० हस्तीमलजी -- जैन धर्म का मौलिक इतिहास - भाग १, पृ० १९० (ग) जैन साहित्य के इतिहास में अरिष्टनेमि की बारात का वर्णन लालित्य - पूर्ण एवं बहुत आकर्षक भाषा में कई कवियों ने किया है । ३. आ० हेमचन्द्राचार्य — त्रिषष्टिशलाकापुरुष - पर्व ८, सर्ग ९, पृ० ३८४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002126
Book TitleJain Dharma ki Pramukh Sadhviya evam Mahilaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHirabai Boradiya
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1991
Total Pages388
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, History, & Religion
File Size16 MB
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