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________________ तेरापंथ को अग्रणी साध्वियाँ : ३१३ महासती लाडांजी को गुरुकुलवास मिला। महासती झमकूजी के स्वर्गारोहण के पश्चात् उनका कार्यभार महासती लाडांजी को सौंपा गया। युगप्रधान आचार्यश्री तुलसी का जीवन क्रान्ति का जीवन है। आचार्यवर्य के कुशल नेतृत्व में साधु-साध्वियों ने अनेक क्षेत्रों में विकास किया । महासती लाडांजो ने उस विकास को शतगुणित किया। साध्वियों ने शिक्षा के क्षेत्र में जो प्रगति की है उसका श्रेय प्रमुख रूप से साध्वीप्रमुखाजी को हो है । वे प्रेरणास्रोत थीं। जीवन भर प्रेरणादीप बनकर जलती रहीं। सागर में गागर समाये इसमें कोई आश्चर्य नहीं किन्तु गागर में सागर समा जाए वह आश्चर्य है। साध्वीप्रमखा श्री लाडांजी ने गागर बनकर जीवन बियाया किन्तु उनमें सागर लहराता रहा। जिज्ञासा जीवन का जीवन्त आधार है। आप में जिज्ञासायें प्रबल थीं। यत्र-तत्र जिज्ञासाओं को शान्त कर अपनो गागर को भर लेतीं। ___आप अभय थीं, भय था तो केवल पाप का । आचार-कौशल इसका फलित था। साध्वीप्रमुखा का पद उन्हें मिला । वे पद से शोभित नहीं थीं, पद उनसे सुशोभित हआ। वे असामान्य थीं, पर उन्होंने सामान्य से कभी नाता नहीं तोड़ा। वे निःस्पृह थीं। उन्हें सब कुछ मिला पर उसमें आसक्त न बनीं। उनकी मृदुता, सौम्यता, निडरता और कष्ट सहिष्णुता विलक्षण थी। उनका भौतिक शरीर रोगग्रस्त हुआ किन्तु मनोबल सदा स्वस्थ रहा। बहुत वर्ष तक निरन्तर रक्तस्राव की बीमारी ने आपकी सहिष्णुता को द्विगुणित कर दिया । चिकित्सकों ने तो कैंसर तक को कल्पना कर ली । वि० सं० २०२३ में आचार्य प्रवर ने दक्षिण यात्रा प्रारम्भ की। महासती लाडांजो को बीदासर में अस्वस्थता के कारण रुकना पड़ा। व्याधि ने भयंकर रूप धारण कर लिया। जलोदर की भयंकर वेदना में भी चार-चार सूत्रों का स्वाध्याय चलता। अत्यन्त समभाव से वेदना को सहन किया। थोड़े ही महीनों में तीन बार पानी निकाला गया । डॉक्टर पर डॉक्टर आने लगे । सबकी आवाज थी कि इस बीमारी का आपरेशन के सिवा कोई इलाज नहीं। पर आपने स्वीकृति नहीं दी। हँसते-हँसते समरांगण में सुभट की भाँति आत्मविजयी बनीं। आपकी सहिष्णुता को देख, सुनकर महामना आचार्य प्रवर ने आपको “सहिष्णुता को प्रतिमूर्ति" उपाधि से अलंकृत किया। चैत्र शुक्ला त्रयोदशी की रात्रि के ३। बजे अनशनपूर्वक कायोत्सर्ग की मुद्रा में स्वर्ग के लिए प्रस्थान किया। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002126
Book TitleJain Dharma ki Pramukh Sadhviya evam Mahilaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHirabai Boradiya
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1991
Total Pages388
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, History, & Religion
File Size16 MB
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