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३१२ : जैनधर्म की प्रमुख साध्वियाँ एवं महिलाएं
आप स्वाध्याय-रसिक थीं। शैक्ष, ग्लान, वृद्ध की परिचर्या में विशेष आनन्दानुभूति होती थी। जब कभी शल्य-चिकित्सा का प्रसंग आता तो अपने हाथों से उस कार्य को सम्पन्न कर देतीं। हाथ था हल्का और साथसाथ कार्यकुशलता । एक बार कालूगणि चातुर्मास के लिए चूरू पधार रहे थे। नगर प्रवेश का मुहर्त ६।। बजे था। दूरी थी ६ मील को । आचार्यश्री इतने शीघ्र किसी हालत में वहाँ पहुँच नहीं सकते थे। अतः प्रस्थाना रूप आपको भेजा । आप एक घण्टे में ६ मील पहुँच गयीं । स्मृति
और पहचान अविकल थी। वर्षों बाद भी दर्शनार्थी की वन्दना अँधेरे में नामोच्चारणपूर्वक स्वोकार करतीं । दर्शनार्थी गद्गद् हो जाते और अपना सौभाग्य समझते।
हर्ष से विह्वल और शोक से उद्विग्न होने वाले अनेक हैं। दोनों अवस्थाओं में समरस रहने वाले विरले मिलेंगे। कालूगणि का स्वर्गवास हुआ । सर्वत्र शोक का वातावरण था। ऐसी विकट स्थिति में आपने धैर्य का परिचय दिया । सब में साहस का मन्त्र फूंका। वह शोक अभिनव आचार्य पद प्राप्त तुलसी गणि के अभिनन्दन में हर्ष बनकर उपस्थित हुआ।
तेरापंथ शासन की ३७ वर्षों तक सेवाएँ की। आचार्यों का विश्वास, साधु-साध्वियों का अनुराग, श्रावक समुदाय की अविकल भक्ति को स्वीकार करती हुई साधना की आनन्द मुक्ताओं को समेटती-बिखेरती वि० स० २००२ में पूर्ण समाधि में इस संसार से चल बसीं। आज उनकी केवल स्मृति रह गयी है जो अनेक कार्यों में प्रतिबिम्बित होकर विस्मृति को स्मृति बना देती है।
८. महासती लाडांजी-आपका जन्म वि० सं० १९६० में लाडनूं में हुआ तथा दीक्षा भी लाडनूं में ही वि० सं० १९८२ में हुई। ___साध्वी-प्रमुखा पद-प्राप्ति वि० सं० २००२ में हुई। विवाह के अनुरूप आयु होने पर विवाह किया गया गया किन्तु अल्पसमय पश्चात् ही पतिवियोग सहना पड़ा। वैराग्य का अंकुर प्रस्फुटित हुआ। आपकी दीक्षा अष्टमाचार्यश्री कालूगणि के करकमलों से मुनि तुलसी, जो बाद में तेरापंथ के नवम आचार्य बने, के साथ हुई। किसने ऐसा चिन्तन किया था कि इस शुभ मुहूर्त में दीक्षित होने वाले ये दोनों साधक शासन के संचालक बनेगें । शासन का सौभाग्य था ।
कालूगणिके स्वर्गारोहण के पश्चात् तुलसीगणि पदासीन हुए।
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