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३०८ : जैनधर्म की प्रमुख साध्वियों एवं महिलाएं
श्रीमज्जाचार्य ने भगवती सूत्र की राजस्थानी भाषा में पद्यबद्ध टीका करनी प्रारम्भ की। आचार्यश्री पद्य फरमाते और आप एक बार सुनकर लिपिबद्ध कर लेतीं । एक समय में ६, ७ पद्यों को सुनकर याद रख लेतीं । आपकी लिपि सुघड़ और स्पष्ट थी । आपने अनेक ग्रन्थ लिपिबद्ध किए।
व्याख्यान कला बेजोड़ थी । कण्ठ का माधुर्य रास्ते में चलते पथिक को रोक लेता था । वि० सं० १९२७ में साध्वीप्रमुखा का कार्यभार सँभाला । १५ वर्ष तक इस पद पर रहीं । आपके अनुशासन में वात्सल्य मूर्तिमान था । समस्त साध्वी समाज का विश्वास आपको प्राप्त था । आपका स्वर्गवास १९४२ की पौष कृष्णा नवमी को हुआ ।
४. महासती नवलाँजी - आपका जन्म सं० १८८५ में हुआ । बाल्यावस्था में ही विवाह हो गया । कुछ वर्ष पश्चात् ही पति का वियोग सहन करना पड़ा । तृतीय आचार्य श्री ऋषिराय जी के कर-कमलों से दीक्षा संस्कार सम्पन्न हुआ । आपने दीक्षा के दिन अपना केश - लुंचन स्वयं अपने हाथों से किया ।
विवेक, नम्रता आदि गुणों से योग्य समझकर आचार्यश्री ने उनको बहुत सम्मान दिया, उसका उदाहरण है, उनको उसी दिन 'साझ' की वन्दना करवाई गई ।
आपने बत्तीस आगमों का वाचन किया । तत्त्व को गहराई से पकड़तीं और निपुणतापूर्वक अन्य जनों को समझातीं । कण्ठ में माधुर्य और गाने की कला सुन्दर थी। सिंघाड़े की साध्वियों को पुस्तकें समर्पित करने की पहल आपने की । जयगणि के शासनकाल में १३ वर्ष तक गुरुकुल - वास का सुन्दर अवसर आपको प्राप्त हुआ । १२ वर्ष ६ माह तक अग्रणी रूप में बहिविहार करते हुए जन-जीवन को जागृत किया ।
आचार्यश्री रायचन्द जी, आचार्यश्री जीतमलजी, आचार्यश्री मघराजजी, आचार्यश्री माणकचन्दजी, आचार्यश्री डालगणि इन पाँच आचार्यों की आज्ञा और इंगित की आराधना करती हुई आचार्यों की करुणा-दृष्टि की पात्र बनीं ।
ज्येष्ठा और कनिष्ठा सभी साध्वियों को आप से अनहद वत्सलता मिलती । ३ वर्ष तक बीदासर में आपका स्थिरवास हुआ । आषाढ़ कृष्णा पंचमी के दिन नव प्रहर के अनशनपूर्वक ६९ वर्ष की अवस्था में समाधिपूर्वक स्वर्गगमन किया ।
५. महासती जेठाँजी - आपका जन्म वि० सं० १९०१ में हुआ ।
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