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तेरापंथ की अग्रणी साध्वियां : ३०९
दीक्षा वि० सं० १९१६ में चूरू में हुई। प्रमुखा पद वि० सं० १९५५ में लाडनूं में प्राप्त हुआ। आपका स्वर्गवास वि० सं० १९८१ में राजलदेसर में हुआ।
व्यक्तित्व स्वयं एक ज्योति है। वह स्वयं प्रकाशशील है। साध्वीश्री जेठाँजी व्यक्तित्व की धनी थीं। शरीर सम्पदा से आपकी आन्तरिक सम्पदा कहीं अधिक महान् थी। यही कारण था कि आपका जीवन उत्तरोत्तर आदर्श बनता गया और आपने तपस्या को अपने में मूर्तकर शरीर के प्रति अभयत्व की भावना का पाठ पढ़ाया । ___ आपके दो दशक गृहस्थवास में बीते । इस अल्प अवधि में अनेक सुखदुःखात्मक अनुभूतियाँ आपको हुईं। आपका कुटुम्ब समृद्धिशाली था। आपका विवाह हुआ परन्तु १६वें वर्ष में प्रवेश पाते ही पति का वियोग हो गया और आपका सर्वस्व लुट गया । सब कुछ खोकर भी आपने वह पाया जो अमर आनन्द देने वाला था। दुःख वैराग्य की सुखमय अनुभूति में बदल गया। ___जयाचार्य के कर-कमलों से दीक्षा संस्कार हुआ। सरदार सती के सान्निध्य में शिक्षण चला । रुचि एकनिष्ठ थी। महासती सरदाराँजी की वैयावृत्य और शासन के कतिपय कार्यों का दायित्व स्वयं ले लिया। आपने सेवा व्रत को अपने जीवन का अंग बना लिया। ग्लान साधु-साध्वियों के लिए औषधि का सुयोग मिलाने का कार्य आपने पूर्ण तत्परता से निभाया । नवदीक्षिता साध्वियों को आपकी देख-रेख में रखा जाता । आप उन्हें सुसंस्कारों से संस्कारित बनातीं । कष्टसहिष्णुता का मर्म समझातीं।
तेरापंथ के सप्तमाचार्य श्री डालगणि ने आपको प्रमख पद पर स्थापित किया । आपकी सेवाओं के विषय में डालगणि कहते थे-“जेठांजी की सेवाएँ अनुकरणीय हैं । इन्होंने आचार्यों तथा साधु-साध्वियों की बहुत सेवाएँ की । इनसे सेवा करना सीखो।" __ साध्वी श्री जेठाजी ने १७ और २ को छोड़कर २२ तक चौविहार तपस्या की । तेरापंथ में यह चौविहार तपस्या का उत्कृष्ट उदाहरण है। सहज सौन्दर्य, कर्त्तव्य-निष्ठा, गुरु-भक्ति सहज ही जन-जन को आकृष्ट कर लेती थी। ___ कालूगणि फरमाया करते-“जेठाँजी की देखरेख में कितनी भी साध्वियों को रखा जाए, उनकी व्यवस्था के बारे में मुझे चिन्ता नहीं करनी पड़ती।" इन वचनों में उत्तरदायित्व के प्रति उनकी निष्ठा एवं अपने आश्रित के प्रति वात्सल्य की पूर्ण झलक है।
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