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दिगम्बर सम्प्रदाय की अर्वाचीन आयिकायें : २३३
पुत्री का जन्म हुआ, जिसका भँवरीबाई नामकरण किया। बालिका का रूप बाला होने जा रहा था कि पिता ने नागोर (राजस्थान) निवासी श्री छोगमल बड़जात्या के सुपुत्र श्री इन्द्रचन्द्र जी के साथ इनका विवाह सम्पन्न कर दिया। विवाह के ३ माह पश्चात् ही पति वियोग के असह्य दुःख ने आ घेरा।
समय परिवर्तन ने जीवन की वास्तविक ध्वनि को उद्घोषित कर दिया कि 'मुझे शान्ति चाहिए, मुझे सुख चाहिए' मुझे निराकुलता चाहिएयह ध्वनि कृत्रिम नहीं थी, स्वाभाविक थी फलतः हृदय वैराग्य की ओर झुक गया । वि० सं० २००६ में श्री इन्दुमती संघ मैनसेर पहुँचा । संघ के समक्ष भँवरीबाई ने आजीवन लवण का त्याग कर सप्तम प्रतिमा को ग्रहण किया । माघ शुक्ला ४ को बन्धुबान्धवों का मोह छोड़कर पूर्णतया आध्यात्मिक जीवन अपना लिया। ___ इन्दुमती संघ के साथ पवित्र तीर्थ स्थलों पर भ्रमण कर वैराग्यभावना से ओतप्रोत होकर भाद्र सुदी ६ वि० सं० २०१४ को खानिया (जयपुर) में आ० महावीरकीर्ति, आर्यिका श्री इन्दुमती जी आदि विशाल संघ और जनसमुदाय के मध्य आचार्यश्री १०८ वीरसागर महाराज से आर्यिका के महाव्रत ग्रहण किये । मति को भलीभाँति अपने समीपस्थ करने के कारण सुपार्श्वमती अभिधान को अलंकृत किया। सतत अध्ययन के परिणाम स्वरूप आपने जैन सिद्धान्त, व्याकरण, न्याय, ज्योतिष, मंत्र-तंत्र आदि का ज्ञान अर्जन कर अनेक कृति परिणामों से ज्ञानपिपासु और जिज्ञासुओं को ज्ञानसुधा का पान कराकर तृप्त कर रही हैं। आर्यिका सुप्रभामती जी
स्वाध्याय में तल्लीन रहनेवाली आपका जन्म पिता श्री नेमीचन्द्र जी जैन के घर कुरड़वाड़ी (महाराष्ट्र) में हुआ था । बाल्यावस्था की सीमा का अतिक्रमण कर ही नहीं पायी कि बालिका श्री मोतीलाल जी के साथ संसारबन्धन में बँध गयी। बाला के चरणों में लगी मेंहदी की लाली हल्की भी न हो पायी कि विधवा हो गई। शीघ्र ही अपना चित्त धर्मध्यान की ओर लगाया तथा न्याय प्रथमा के साथ लोकिक इण्टर परीक्षा उत्तीर्ण कर ली। तत्पश्चात् सोलापुर में राजुमती श्राविकाश्रम में १५ संवत्सर पर्यन्त अध्यापन कार्य किया। वि० सं० २०२४ मिती कार्तिक शुक्ला १२ के. शुभ मुहूर्त कुम्भोज बाहुबली के प्रांगण में आचार्यश्री १०८
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