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________________ - १८८ : जैनधर्म की प्रमुख साध्वियां एवं महिलाएँ इस पर श्रीमती ने पुत्र का मोह त्याग कर कहा, “प्राणेश्वर, संसार तो असार है, पुत्र से भी कोई महिला चिरकाल तक अमर नहीं रहती । संतान कुसंतान भी निकल सकती है और उसके दुष्कृत्यों से सात पीढ़ी बदनाम भी हो सकती है । माता, पुत्र, पति आदि तो सांसारिक जीवन के नाते हैं । पर यदि तीर्थोद्धार हुआ तो उसका पुण्य जन्म-जन्मान्तर तक रहेगा | अतः पुत्र प्राप्ति के स्थान पर मन्दिर के तीर्थोद्धार का वर देवी से प्राप्त करें "" । धर्मनिष्ठ श्राविका श्रीमती ने संतान प्राप्ति का मोह छोड़कर जिस • महान् त्याग का उदाहरण दिया है, वह वास्तव में आदर्श व अनुकरणीय है । पुत्र प्राप्ति तथा मातृत्व पद प्राप्त करने के लिये स्त्रियां कई प्रकार के तप, जप करती हैं तथा सिद्ध पुरुषों से आशीर्वाद प्राप्त करती हैं । परन्तु आदर्श नारी श्रीमती ने अपने व्यक्तिगत क्षणिक सुख को समष्टि के सुख-आनन्द के लिये न्योछावर कर दिया और इस त्याग की नींव पर ई० सन् १०३२ में एक ऐसे जिनालय का निर्माण हुआ, जिसके समान स्थापत्य कला का दूसरा उदाहरण संसार में मिलना दुर्लभ है । इतिहास में सुवर्ण अक्षरों में श्रीमती के इस त्याग की महिमा जैन लिखी जाने योग्य है । पाहिनी : माता पाहिनी तथा पिता चाचिग के पुत्र हेमचन्द्राचार्य जैन धर्म के.. सर्वतोमुखी तथा विलक्षण प्रतिभा वाले आचार्य हुए । ई० सन् की ग्यारहवीं शताब्दी में (सन् १०८८ में) गुजरात में जैन धर्म को राज्य धर्म के शिखर पर पहुँचाने वाले आचार्य के संबंध में जैनेतर विद्वद्रत्न पीटर्सन ने अपना अभिप्राय इन शब्दों में व्यक्त किया है "आचार्य हेमचन्द्र इज द ओसन आफ द नालेज ४ १. आ० विजयधर्म सूरि-आबू - पृ० २४ २. (क) वही, पृ० २५ (ख) अगरचन्दजी नाहटा - श्वेताम्बर जैन महिलाएँ - पृ० ३३४ ३. डॉ० जी० बुलर - हेमचन्द्राचार्य - जीवनचरित्र - अनु० कस्तूरमल बाठियापृ० १० ४. मुनि सुशीलकुमार - जैन धर्म का इतिहास - पृ० २३३-२३४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002126
Book TitleJain Dharma ki Pramukh Sadhviya evam Mahilaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHirabai Boradiya
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1991
Total Pages388
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, History, & Religion
File Size16 MB
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