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दक्षिण भारत की जैन साध्वियां एवं विदुषी महिलाएँ : १७१ करते हुए गृहस्थाश्रम में रही। यद्यपि अतिमब्बे आमरण जैन श्राविका रही, फिर भी कठिन से कठिन व्रतों के द्वारा इसने अपने शरीर को इतना कृश कर लिया था कि तत्कालीन महाकवि रत्न ने उनको कामपराङ्मुखता तथा देहदंडन नाम के दोनों गुणों की साक्षात् मूर्ति बताकर बड़ी प्रशंसा की है।
दानशिला अतिमब्बे की जिन धर्म पर इतनी गहरी श्रद्धा थी कि उन्होंने अपनी निजी धनराशि को धर्म-प्रचार के लिये व्यय किया। कहा जाता है कि इसी देवी ने अपने व्यय से कन्नड़ कवि पोन्न द्वारा सन् ९३३ में लिखे गये 'शान्तिपूराण' की एक सहस्त्र हस्तलिखित प्रतियाँ लिखाकर दान में बटवाई।२ इससे कर्नाटक में सर्वत्र जैन धर्म का बहुत प्रचार हुआ। इसी प्रकार अन्य हस्तलिखित काव्यों की भी रक्षा की । मुद्रणालयों के अभाव के कारण उस जमाने में प्रत्येक ग्रन्थ की प्रत्येक प्रति को हाथ से लिखना-लिखवाना पड़ता था। अतः जिस ग्रन्थ की प्रतियाँ अधिक तैयार होती थीं, उस ग्रन्थ का प्रचार उतना ही अधिक हुआ करता था। इसकी सुचारु व्यवस्था न होने के कारण अत्यन्त महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ और उसके रचयिता का नाम हमेशा के लिए लुप्त हो जाया करता था। अतिमब्बे की प्रेरणा से ऐसे कई महत्त्वपूर्ण ग्रन्थों को पुनर्जीवित किया गया।
साहित्य सेवा के साथ-साथ उन्होंने 'मणिकनकखचित' (सोने तथा रत्नों से मढ़ी हुई) १५०० जिन-प्रतिमाएँ विधिवत बनवाकर सहर्ष दान दी थी । प्रत्येक प्रतिमा के लिये एक-एक चित्ताकर्षक बहुमूल्य मणिघटा, दीपमाला, रत्न-तोरण तथा बितान (चंदरवा-मूर्ति के ऊपर बाँधने का नक्षीदार चौकोर कपड़ा) भी भेंट किया। महाकवि रत्न ने अतिमव्बे के इस धर्मानुराग की भूरि-भूरि प्रशंसा की है। वस्तुतः दान चिंतामणि अतिमव्बे का यह दान सामान्य दान नहीं, किन्तु महादान था। साथ ही सर्वतोमुखी महादान से प्राप्त 'दान-चिंतामणि' उपाधि सर्वथा उपयुक्त है।
१. ब्र० पं० चन्दाबाई अभिनन्दन ग्रन्थ-पृ० ५२१ २. (क) डॉ० हीरालाल जैन-भारतीय संस्कृति में जैन धर्म का योगदान
पृ० ३८ (ख) मद्रास विश्वविद्यालय की ओर से प्रकाशित शक्तिपुराण की प्रस्तावना
में उद्धृत । (ग) ब० पं० चन्दाबाई अभिनन्दन ग्रन्थ, पृ० ५२३
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