SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 223
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १५६ : जैनधर्म की प्रमुख साध्वियां एवं महिलाएं रक्षित की माता रुद्रसोमा धर्मपरायण श्राविका थीं। जब वह घर लौटा उस समय रुद्रसोमा सामायिक कर रही थी, उसने रक्षित के . साथ समभावयुक्त व्यवहार किया । उसे न तो अति हर्ष हुआ और न ही उसने आशाजनक स्नेह का प्रदर्शन किया। सामायिक पूर्ण करने पर जब युवक रक्षित ने माता से पूछा कि माँ त प्रेम विभोर होकर मुझसे क्यों नहीं मिली तो उसने कहा, 'पुत्र तुम इतने वर्ष बाद आये हो तो ऐसी कौन सी अभागिन माँ होगी जो अपने पुत्र के सफलतापूर्वक विद्याध्ययन करने के पश्चात् लौटने पर प्रसन्न नहीं होगी किन्तु इस विद्या का फल सांसारिक सुखोपभोग प्रदान करने तथा अपने और अपने परिजनों का "भरण-पोषण करने तक ही सीमित है । स्व-पर-कल्याण अथवा आध्यात्मिक अभ्युत्थान में वह विद्या किंचित् मात्र भी सहायक नहीं है । मुझे सच्ची खुशी तभी होती जब तुम आत्म-विद्या से ओतप्रोत (दृष्टिवाद) विषयों का अध्ययन करके आते और अध्यात्म-मार्ग के सफल पथिक बनकर कुशल पथ प्रदर्शक बनते।' आर्य रक्षित ने माता रुद्रसोमा के मार्ग दर्शन से नगर के बाहर इक्षु वाटिका में आचार्य तोषलिपुत्र के पास जाकर प्रव्रज्या ग्रहण की और एकादशांगी का गहन अध्ययन करने के पश्चात् आर्य वज्र की सेवा में पहुँचकर सार्द्धनवपूर्ण का ज्ञान प्राप्त किया। जब आर्य रक्षित को उसका भाई फल्गुरक्षित घर लिवा जाने के लिए आया तो वह स्वयं भी दीक्षित हो गया। उनके दशपुर पहुँचने पर माता-पिता ने भी अनगार धर्म ग्रहण कर दीक्षा ले ली। आर्या रुद्रसोमा ने कठोर तपश्चर्या करके दीर्घकालीन संयम की साधना की। उनके वंश का नाम आगे चलेगा या नहीं इस बात को किंचित् मात्र भी चिन्ता न करके माता-पिता ने दोनों पुत्रों को उच्च संस्कारों से अभिप्रेत कर आध्यात्मिक साधना पथ का पथिक और पथ प्रदर्शक बनने तथा औरों का भी कल्याण करने की प्रेरणा दी। रुद्रसोमा की प्रेरणा का ही प्रतिफल है कि बालक रक्षित आगे चलकर युगप्रधान आचार्य बने । रुद्रसोमा से लेकर आज तक असंख्य महिलाएँ हुईं जिनको संतति वंश परम्परा चली परन्तु उन्हें कोई नहीं जानता। लगभग २००० वर्ष व्यतीत हो जाने के बाद भी रुद्रसोमा का नाम बड़े आदर के साथ लिया जा रहा है। १. (क) आ० हस्तीमलजी-जैन धर्म का मौलिक इतिहास, दुसरा भाग पृ० ७९३ (ख) उपा० अमरमुनिजी-पूर्व इतिवृत्त-रत्नमुनि स्मृति ग्रन्थ-पृ० २४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002126
Book TitleJain Dharma ki Pramukh Sadhviya evam Mahilaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHirabai Boradiya
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1991
Total Pages388
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, History, & Religion
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy