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तीर्थंकर महावीर के युग की जैन साध्वियाँ एवं विदुषी महिलाएँ : १२३
प्रदान करता रहता था । पिता की दानशीलता एवं माता की कार्य कुशलता ने शालिभद्र को निश्चिन्त कर दिया और वह अपने राग-रंग में रत, भौतिक सुखों में जीवन व्यतीत करता था ।
एक दिन राजगृह में नेपाल के व्यापारी सोलह रत्न जटित कम्बल लेकर आये, इनमें प्रत्येक की कीमत सवा लाख स्वर्ण मुद्रा थी जिसे राजगृही में कोई क्रय नहीं कर सका । श्रेष्ठी भद्रा ने नगर का गौरव रखने के लिये उन सभी कम्बलों को खरीद लिया और एक-एक के दो-दो टुकड़े बनाकर बत्तीस पुत्र वधुओं को दे दिया । इन कम्बलों की यह विशेषता थी कि ये शीत ऋतु में गर्मी और गर्मी में शीतलता प्रदान करते थे । इन अद्भुत कम्बलों को प्राप्त करने का रानी चेलना का अति आग्रह देखकर राजा श्रेणिक ने व्यापारियों को बुलाया पर उन्होंने विवशता प्रकट करते हुए कहा, "आपके नगर की भद्रा श्रेष्ठिनी ने सब कम्बल क्रय कर लिये हैं ।
राजा श्रेणिक का संदेशा पाकर भद्रा राजा के योग्य बहुमूल्य उपहार लेकर राजदरबार में गई और नम्रता से बोली - " राजन्, मेरे दिवंगत पति देवगति में हैं और वे पुत्र स्नेह के वशीभूत होकर शालिभद्र तथा पुत्रवधुओं को वस्त्राभूषण तथा अंग-राग आदि की तैंसीस पिटारे प्रतिदिन भेजते हैं । रत्न कम्बल का स्पर्शं पुत्रवधुओं को कठोर अनुभव हुआ और इसलिये उन्होंने उनका उपयोग पैर पोंछने के वस्त्र के रूप में किया" । इस निवेदन के बाद भद्रा ने अति आग्रहपूर्वक राजा श्रेणिक को अपने यहाँ पधारने का निमंत्रण दिया । राजा ने सहर्ष निमंत्रण स्वीकार कर लिया ।
भद्रा अपने रथ में बैठकर आवास पर आई, राजा के स्वागत की तैयारी में व्यस्त हो गई और राजा भी राजकीय समारोहपूर्वक भद्रा के निवास पर आये । भद्रा ने श्रेणिक का अपने गृह पर उचित स्वागत किया तथा पुत्र शालिभद्र को भी राजा से भेंट करने को बुलाया । माता का सम्बोधन कि " राजा श्रेणिक अपने नाथ हैं", शालिभद्र को उचित नहीं लगा । वह तो स्वयं स्वामी बनना चाहता था । अतः दासता की इस तीव्र भावना से उसका मन सांसारिक भोगों से विरक्त होकर राग्य की ओर प्रवृत्त हुआ, किन्तु माता के अति आग्रह से प्रतिदिन एक
१. ( क ) त्रिषष्टिशलाकापुरुष - पर्व १०, सर्ग १०, पृ० १९१ - १९२ (ख) आगम और त्रिपिटक ( मुनि श्री नगमलजी )
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