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तीर्थंकर महावीर के युग की जैन सध्वियां एवं विदुषी महिलाएँ : १११ उन्होंने ग्यारह प्रतिमाओं का शास्त्रानुसार पालन किया । इस कठोर व उग्र तपस्या के कारण उनका शरीर अत्यन्त कृश हो गया । अतः उन्होंने अन्त में सल्लेखना लेने का दृढ़ संकल्प किया । उन्होंने अन्न, जल का त्याग किया और मृत्यु की कामना नहीं करते हुए धर्म ध्यान में लीन हो गये । इस शुभ अध्यवसाय (दृढ़ संकल्प) के कारण उन्हें अबोध ज्ञान प्राप्त हुआ ।
एक बार रेवती पुनः उन्मादिनी होकर महाशतक के पास आई और पहले के समान महाशतक को अपने प्रण (संकल्प) से विचलित करने का "प्रयत्न करने लगी । इस बार महाशतक श्रावक को क्रोध आ गया और वे -बोले, "अपना अनिष्ट चाहने वाली हे रेवती, तू सब अवगुणों की साक्षात् मूर्ति है - तू सात दिन में ही अलस रोग (मंदाग्नि के रोग ) से पीड़ित - होकर असमाधि मृत्यु प्राप्त कर रत्नप्रभा पृथ्वी के नीचे लोलुपच्युत नरक में चौरासी हजार वर्ष की स्थिति वाले नारकीय जीवों में उत्पन्न होगी" । श्राविका के बारह व्रतों का पालन नहीं करने से रेवती के जीवन का दुःखद अन्त हुआ'।
अश्विनी' :
अश्विनी, श्रावस्ती के वैभवशाली श्रेष्ठी नन्दिनीपिता की धर्मपत्नी थी । वह रूपवती, गुणवती तथा विद्यावती के नाम से जानी जाती थी ।
तीर्थंकर महावीर साधु साध्वियों के समुदाय सहित जब श्रावस्ती के कोष्टक चैत्य में पधारे तब नगर के नर-नारी उत्कंठा, उत्साह और श्रद्धापूर्वक चैत्य की ओर चल पड़े । नन्दिनीपिता भी समवसरण में गये और महाशतक के समान बारह व्रतों को अंगीकार किया तथा अपनी संपत्ति की सीमा निर्धारित की ।
स्वगृह आकर उन्होंने अपनी सहधर्मिणी अश्विनी को प्रेरक शब्दों में बताया - "हे देवानुप्रिये ! महावीर का सान्निध्य प्राप्त कर मैं अपने को उनसे अत्यन्त प्रभावित अनुभव कर रहा हूँ। मैं जीवन के लिये कल्याणकारी, असीम शान्तिप्रदायक, श्रावक के लिये आवश्यक उपदेशित बारह व्रतों को अंगीकार कर चुका हूँ । तुम भी वहाँ शीघ्र पहुँचो, अलभ्य क्षणों की सुलभता के लिये विलम्ब मत करो । भगवान् महावीर के पावन दर्शन कर,
१. पू० घासीलालजी - उपासक दशांग - अ० ८, सूत्र २३१-२५०, पृ० ४९१-५०० २. उपासकदशांग, सू.० ५५
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