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११० : जैनधर्मं की प्रमुख साध्वियों एवं महिलाएँ
रेवती को पति के इस प्रण का पता शीघ्र ही लग गया, उसने सौतिया के वशीभूत होकर मन में सोचा कि यदि मैं इन बारहों का किसी भी प्रकार अन्त कर दूँ तो सम्पूर्ण समृद्धि एवं पति के साथ सांसारिक सुखों का भोग अकेली कर सकूंगी । ऐसा सोचकर उसने अनुकूल अवसर देखकर छः को शस्त्र द्वारा तथा छः को विष देकर मरवा दिया । इसके पश्चात् वह आनंदित होकर अपने पति महाशतक के साथ सांसारिक सुख भोगने लगी । रेवती मांस भक्षण को दोष न जानकर कई प्रकार के मांस से बने हुए विभिन्न व्यंजनों का भोजन करती थी तथा मदिरा पान करके उन्मत्त होकर व्यवहार करती थी ।
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एक समय राजगृह नगरी में अमारि (हिंसा बन्दा ) का घोषणा हुई तब रेवती ने अपने पिता के यहां के सेवकों को बुलाकर कहा, “हे भृत्य, तुम लोग मेरे माता-पिता के यहाँ से प्रतिदिन दो बछड़े मेरे लिये मारकर लाया करो ।” उन्होंने यह बात स्वीकार की, अतः वे लोग दो बछड़े " नित्य मारकर रेवती के पास लाने लगे । रेवती पहले की तरह मांसमदिरा का प्रतिदिन सेवन करती हुई समय बिताने लगा ।
इधर महाशतक श्रेष्ठी को विभिन्न प्रकार के व्रत नियमों का पालन करते हुए चौदह वर्ष व्यतीत हो गये । आनन्द श्रावक के समान अपने ज्येष्ठ पुत्र को कुटुम्ब की जिम्मेदारी सौंपकर पोषधशाला में अधिक समय तक धर्म ध्यान में लीन रहने लगे ।
एक दिन रेवती पौषधशाला में पहुँची और अपने पति से बोली, "हे श्रावक, तुम स्वर्ग तथा मोक्ष की आकांक्षा के लिये धर्म ध्यान करते हो, क्योंकि मनुष्य धर्म, पुण्य आदि सुख प्राप्ति के लिये ही करते हैं । संसार में विषय भोग से बढ़कर दूसरा कोई सुख नहीं है । अतः इन सब झंझटों को छोड़कर मेरे साथ सांसारिक जीवन के सुख / आनन्द का उपभोग करो ।" महाशतक श्रावक तीर्थंकर महावीर द्वारा उपदेशित बारह व्रतों का गहन अर्थ समझ चुके थे तथा साधना को ही जीवन का ध्येय मानते थे । उन्होंने रेवती के इस प्रकार के घृणित व निरर्थक कथन पर रंचमात्र भी ध्यान नहीं दिया । रेवती के बार-बार इसी प्रकार क्रोधित होकर बोलने पर भी वे अपने धर्म ध्यान से विचलित नहीं हुए ।
शनैः शनैः महाशतक श्रावक धर्म की गहराई में जाने लगे और
१. पू० घासीलालजी — उपासकदशांग - अ० ८, सूत्र २४०, पृ० ४९५
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