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तीर्थंकर महावीर के युग की जैन साध्वियां एवं विदुषी महिलाएं : १०९ की प्रदक्षिणा की, तीर्थंकर महावीर ने अग्निमित्रा को धर्मोपदेश दिया। धर्मोपदेश श्रवण कर अग्निमित्रा परम उत्साहित हुई। उसने भगवान् से निवेदन किया, "हे भगवन् ! मैं निर्ग्रन्थ प्रवचन पर श्रद्धा रखती हूँ। अतः मैं श्राविका के बारह व्रतों को अंगीकार करना चाहती हूँ।"
सद्दालपुत्र निर्भय मनोभाव से अपने धर्म पर पूर्ण विश्वास रखता था। दैव उन्हें अपने धर्म व व्रतों से विचलित करना चाहते थे। दैव ने उसकी परीक्षा ली। देव ने पाया कि सद्दालपुत्र निर्भय धर्माचरण कर रहा है। जब देव अपने कृत्य में सफल नहीं हो पाया तब उसने सद्दालपुत्र को यह चेतावनी देकर भयभीत किया कि वह उसकी पत्नी अग्निमित्रा को मार डालेगा। इस संवाद से सद्दालपुत्र कुछ विचलित हुआ लेकिन निर्भयता के साथ वह देव को पकड़ने दौड़ा और उसका पीछा करने लगा। कोलाहल होने से अग्निमित्रा भी वहाँ आ गई, उसने यह सब दृश्य देखा।
अग्निमित्रा ने पति के सन्तप्त मन को शान्त करते हुए उनसे आग्रह किया कि वे भयग्रस्त न हों और न ही धर्म से विचलित हों, मैं सुरक्षित हैं। धर्म मार्ग में अटल रहना ही उनके लिये श्रेयस्कर है। विचलित होने को रंचमात्र भी आवश्यकता नहीं है । सहधर्मिणी अग्निमित्रा की इस दृढ़ प्रेरणा और भक्ति से सद्दालपुत्र पुनः ध्यानावस्थित हुआ।' रेवती :
रेवती, देवगृही के सम्पत्तिवान् श्रेष्ठी महाशतक की पत्नी थी। समृद्धिशाली माता-पिता की पुत्री होने के कारण रेवती को आठ करोड़ स्वर्ण मुद्रा तथा दस-दस हजार गायों के आठ गोकूल दहेज में मिले थे। महाशतक की अन्य बारह पलियाँ अपने दहेज में केवल एक-एक करोड़ स्वर्ण मद्रा तथा दस-दस हजार गायें लाई थीं। अतः रेवती सौतिया डाह से अन्य सहपत्नियों से ईर्ष्या-द्वेष रखती थी।
तीर्थंकर महावीर के आगमन पर अन्य उपासकों के समान महाशतक ने भी धर्मदेशना के पश्चात् श्रावक के बारह व्रत अंगीकार किये तथा अपनी विपूल सम्पत्ति की सीमा निर्धारित की। महाशतक श्रावक ने अपनी तेरह पत्नियों के अतिरिक्त अन्य किसी नारी से दैहिक सम्पर्क न रखने का प्रण लिया।
१. पू० घासीलालजी-उपासकदशांग-अ० ७, सूत्र १८४, पृ० ४४५ २. उपासकदशांग सू० ४६-४८; स्थानांगवृत्ति (अभयदेव) पृ० ५०९
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