SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 171
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १०४ : जैनधर्म की प्रमुख साध्वियां एवं महिलाएँ सुखमय व समृद्ध था । दूतिपलास नामक उद्यान में तीर्थंकर महावीर के आगमन पर आनन्द भी प्रभ की धर्मदेशना सूनने हेतु वहाँ गये। महावीर स्वामी के उपदेश और धर्मदेशना का श्रेष्ठी आनन्द पर बहुत प्रभाव हुआ। इस धर्मदेशना से प्रभावित होकर आनन्द ने श्रावक के बारह व्रत को अंगीकार किया तथा अपनी सम्पदा को सीमित करने की प्रतिज्ञा की। दूतिपलास उद्यान में महावीर स्वामी का सान्निध्य प्राप्त कर श्रेष्ठो उल्लास से अपने घर आये। उन्होंने हर्षातिरेक से अपनी पत्नी शिवानन्दा को उन बारह व्रतों के सम्बन्ध में बताया जो कि उन्होंने अंगीकार किये थे । आनन्द ने अपनी सहधर्मिणी शिवानन्दा से कहा-'मैंने सभी प्रकार की सम्पदाओं, जिसमें धन-धान्य, चल-अचल सम्पत्ति, रजत-स्वर्ण, गोकुल ( अर्थात् गायों का समूह ) आदि सभी को सीमा का निर्धारण कर दिया है।' श्रेष्ठी आनन्द ने अपनी पत्नी को बताया कि सम्यक् व्रत के अनुसार एक पत्नीव्रत का नियम उन्होंने अपने लिए अंगीकार किया है। __ गुणशीला शिवानन्दा पति के संकल्प को सुनकर अत्यधिक प्रसन्न हुई। श्रेष्ठी ने अपनी पत्नी शिवानन्दा को प्रेरित किया कि वह भी भगवान् महावीर की देशना का श्रवण कर बारह व्रत को उनके समान अंगीकार कर ले। शिवानन्दा पति को इस प्रेरणा से प्रफुल्लित होकर दृढ़ संकल्पशक्ति को धारण कर समवसरण में गई। उद्यान में विराजमान भगवान् महावीर के दर्शन वन्दन के पश्चात् शिवानन्दा ने तीर्थंकर से श्राविका के बारह व्रत अंगीकार किये। प्रभु के मुख से धर्मोपदेश सुनकर वह अति प्रसन्न हई तथा उसे अपने पति के इस कथन का सत्य दर्शन होने लगा कि भगवान् महावीर का धर्म इष्ट है और आत्मकल्याण का यही सच्चा मार्ग है। वह गार्हस्थ्य धर्म का पालन करते हुए आत्महित में संलग्न हो गई। भौतिक सुख-सम्पदा से मुख मोड़कर आध्यात्मिक चिन्तन-मनन उनके जीवन का लक्ष्य बन गया। भद्रा: किसी समय चम्पानगरी में समृद्ध श्रेष्ठी कामदेव रहते थे, उनके अतुल वैभव को कीर्ति चारों ओर फैली हुई थी। ये विपुल धनपति होते हुए भी धर्माचरण से जीवन व्यतीत करते थे । १. उपासकदशांग सू० १८ २. पू० घासीलालजी-उपासकदशांगसूत्र, अध्याय १, सूत्र ५९-६२, पृ० ३३३-३३५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002126
Book TitleJain Dharma ki Pramukh Sadhviya evam Mahilaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHirabai Boradiya
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1991
Total Pages388
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, History, & Religion
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy