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तीर्थंकर महावीर के युग की जैन साध्वियाँ एवं विदुषी महिलाएँ : ९१ श्रमण भिक्षा के लिये उनके यहाँ आये। श्रेष्ठो ने विनय से वन्दन कर धनश्री से साधुओं को अन्नाहार देने के लिए कहा। धनश्री ने भोजन उनके काष्ठ के पात्रों में अर्पित किया, पर उनके मलिन वस्त्रों की दुर्गन्ध उसे आई और वह सोचने लगी कि श्रमण धर्म के सब सिद्धान्त उच्च कोटि के हैं, पर सचित्त जल (बहता पानी) में मुनियों को स्नान करने की अनुमति होती तो उसमें क्या दोष हो जाता? यह दुगन्ध, स्नान नहीं करने से ही आती है। परिणामस्वरूप मुनियों की मलिनता से घृणा करने पर जो जुगुप्सा उत्पन्न हुई उससे जो कर्मबन्ध हुआ उसके. कारण यह इस भव में वेश्या की पुत्री हुई, दुर्गन्ध के कारण वेश्या ने उसे निर्जन वन में छोड़ दिया है।"
राजा श्रेणिक को उसके भविष्य के बारे में बताते हुए भगवान् महावीर ने कहा “हे देवानुप्रिये ! यह बालिका अशुभ कर्मों के क्षय हाने. पर तुम्हारी रानी होगी और तुम उसे पटरानी बनाओगे। उसके पहचानने का लक्षण यह रहेगा कि जब वह शतरंज में तुमसे जोतेगो तो तुम्हारी पीठ पर बैठ जायेगी जबकि दूसरी रानियाँ केवल अपना पल्ला (आंचल) डालेंगो इससे तुम पहचान जाओगे कि यह वही दुर्गन्धा बालिका है।" इस अद्भुत कर्मगति की विचित्र बात सुनकर राजा आश्चर्यचकित हो गये और उपदेश श्रवण कर अपने महल को लौट आये।
एक समय कौमुदी मेले में राजा श्रेणिक तथा महामंत्री अभयकुमार वेश बदलकर मेले का आनन्द ले रहे थे, साथ ही नागरिकों को विचारधारा तथा चर्चा को भी जानना चाहते थे । उस समय एक कन्या राजा श्रेणिक पर अपना हाथ रखकर कौतुक देखने लगी। यह दुर्गन्धा बालिका थी, जिसे मार्ग पर से एक निःसंतान ग्वालिन ने उठाकर अपनी पुत्री की भाँति पाला था । कर्मक्षय होने पर यह बालिका एक सुन्दर युवती में परिवर्तित हो गई । बहु पत्नियों का स्वामी राजा श्रेणिक इस नवयुवती के रूप व सम्पर्क से मोहित हो गया और उसे पाने के लिये अपनी मुद्रिका उसके पल्लू में बाँध दी। अभयकुमार ने अपनी विलक्षण बुद्धि से राजा का मन्तव्य जान लिया और उस नवयुवतो से राजा श्रेणिक का विवाह हो गया तथा पूर्व में की गई तीर्थंकर महावीर की भविष्यवाणी भो सत्य हुई।
दुर्गन्धा को अपने पूर्वभव के कर्मबंधन की क्रिया, इस भव में दुर्गन्धपूर्ण शरीर तथा तत्कालीन बहुपत्नियों वाले पति के बीच स्वयं को देख
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