SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 125
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५८ : जैनधर्म की प्रमुख साध्वियां एवं महिलाएं चलन से माता को कभी कष्ट का अनुभव होता व कभी आनन्द का । करुणा एवं अहिंसा की प्रतिमूर्ति महावीर ने गर्भ में यह सोचकर कि उनके हलन-चलन से माता को कष्ट न हो इसलिए उन्होंने हलनचलन बन्द कर दिया। अचानक गर्भ के स्थिर होने से रानी त्रिशला को आशंका हुई कि किसी देव या व्यंतर ने मेरे गर्भ का हरण तो नहीं कर लिया? या वह गल गया या मर गया? इन अशुभ शंकाओं से रानी त्रिशला का मुख ग्लानि से निर्जीव-सा हो गया। अंतःपुर में चिन्ता की लहर दौड़ गई, राज-भवन का समस्त आमोद-प्रमोद एवं मंगलमय वातावरण शोक और चिन्ता में परिणत हो गया। सूचना पाकर राजा सिद्धार्थ भी चिंतित हो गये तथा समस्त राज कर्मचारो किंकर्तव्यविमूढ़ हो गये। गर्भस्थ पुत्र ने अवधिज्ञान द्वारा माता की यह शोकाकुल अवस्था और राजभवन की विषादमयी स्थिति को देखा और सोचने लगे कि अहो ! मैं तो माता की अनुकम्पा व भक्ति से प्रेरित होकर निश्चल और निस्पन्द हआ था पर इसका परिणाम विपरीत हुआ। अतः माता की मनोदशा जानकर बालक महावीर ने अपने शरीर का एक अंग हिलाया। रानी त्रिशला गर्भ के हलन से पुनः सन्तुष्ट हुई। माता-पिता के अत्यधिक वात्सल्य स्नेह की प्रतीति उन्हें गर्भ में ही हई। अतः महावीर ने यह निर्णय किया कि जब तक मेरे माता-पिता जीवित रहेंगे तब तक मैं संसार-त्याग नहीं करूँगा।' त्रिशला रानी भी गर्भ के कुशल-क्षेम का ध्यान रखती हुई आनन्द से रहने लगी। एक समय गर्भ के प्रभाव से त्रिशला रानी को उत्तम दोहद (इच्छा) हआ कि मैं राज्य में सभी प्राणियों की हिसा बन्द करवाने की घोषणा करवाऊँ, दान +, गुरुजनों की अच्छी तरह अभ्यर्थना करूँ, जिन मंदिर में पूजा करवाऊँ, हाथी के सिंहासन पर बैठकर छत्र धारण करूँ। चामर आसपास हों, सामने पताकाएँ फहरा रही हों, वाधित्रों से दिशाएँ गूंज रही हों, आगे जन-समुदाय जय-जय शब्द कर रहे हों, तब मैं उद्यान की निर्दोष क्रीड़ा करूँ । राजा ने रानी त्रिशला के पूर्वोक्त समस्त मनोरथ पूर्ण किये। उनके किसी भी दोहद की अवगणना नहीं की । इसी प्रकार गर्भ को सुखपूर्वक धारण करतो हई, चैत्र मास की शक्ल त्रयोदशी के चित्रा नक्षत्र में नवमास व साढ़े सात दिन सम्पूर्ण होने पर त्रिशला ने स्वर्णिम आभा से युक्त शरीरवाले पुत्र को जन्म दिया। प्रातःकाल अंतःपुर. की दासी प्रियवंदा ने राजा सिद्धार्थ को पुत्र-जन्म को बधाई दी। इस १. कल्पसूत्र ४९, विनयविजयजी की सुबोधिका टीका का हिन्दी भाषांतर । २. कल्पसूत्र ५० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002126
Book TitleJain Dharma ki Pramukh Sadhviya evam Mahilaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHirabai Boradiya
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1991
Total Pages388
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, History, & Religion
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy