SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 124
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तीर्थंकर महावीर के युग को जैन साध्वियाँ एवं विदुषी महिलाएँ : ५७ मान की जननी बनने का गौरव प्राप्त हुआ। अपने व्यक्तिगत गुणों के कारण वे तत्कालीन महिला जगत् में पूजनीय एवं वंदनीय थीं। इस महान् स्त्री का जोवन तीर्थंकर महावीर को माता होने के कारण धन्य हो गया । वे क्षत्रियकुण्ड के राजा सिद्धार्थ की धर्मपत्नी तथा वैशाली गणतन्त्र के अध्यक्ष महाराजा चेटक की सर्वगुण सम्पन्न सहोदरा थीं।' ___एक रात्रि रानी त्रिशला अपने शयनागार में शयन कर रही थीं। उनका शयनागार कई प्रकार के चित्रों से सज्जित तथा तलभाग मणिरत्नों से प्रकाशित, धूप, द्रव्य आदि सुगन्धित द्रव्यों से सुवासित था। इस शुभ रात्रि के अन्तिम प्रहर में अर्ध जागृत व अर्ध सुप्तावस्था में उन्हें समस्त दुःखों का अपहरण करनेवाले सुखदायक चौदह स्वप्न दिखाई दिए। इन विस्मयकारी मंगल स्वप्नों को देखकर रानी शय्या से उठी और इष्ट देव का स्मरण कर राजा सिद्धार्थ के शयन कक्ष में गई। नम्र व मृदु सम्बोधन से उन्हें जगाती हुई, स्वप्नों का वर्णन करने के पश्चात् आतुरता से स्वप्नों का फल जानने की इच्छा प्रगट की। राजा सिद्धार्थ, अपनो रानी के मुख से स्वप्नों का वर्णन सुनकर हर्षित हए। अपने स्वाभाविक बुद्धि विज्ञान से उन्होंने स्वप्नों का अर्थ बतलाते हुए कहा-'हे देवानुप्रिये ! यह स्वप्न शुभ, श्रेष्ठ एवं मंगलकारी है । तुम एक उत्तम गुणोंवाले तेजस्वी तथा पराक्रमी पुत्र की माता बनोगी।" रानो त्रिशला पति के इस कथन से सन्तुष्ट व प्रसन्न हुई। प्रातःकाल राजा ने स्वप्न-विचार विशेषज्ञों से भी इन स्वप्नों का भावार्थ पूछा। विशेषज्ञों ने प्रत्येक स्वप्न का भिन्न-भिन्न अर्थ बताते हुए अन्त में कहा, “हे राजन् ! आपके सिंह समान निर्भय व दिव्य विभूतियों वाला पुत्र होगा, वह या तो चक्रवर्ती राजा होगा या धर्मचक्र की स्थापना करेगा। अपने भावी पुत्र के गुणों की महिमा सुनकर माता त्रिशला का रोम-रोम हर्ष से पुलकित हो उठा । वह अपने गर्भस्थ शिशु की सुरक्षा के प्रति सावधान व सचेष्ट हो गई। माता त्रिशला गर्भ का पोषण करती हुई शुभ चिन्तन में अपना समय व्यतीत करती थी। शनैः शनैः गर्भ की वृद्धि होने लगी। गर्भ के हलन १. (क) आयारचूला १५।२५, (ख) जैन दर्शन-मनन और मीमांसा, पृ० २० २. दिगम्बर परम्परा में चेटक की पुत्री का नाम प्रियकारिणी उल्लिखित है । उत्तरपुराण, पृ० ४६०-आचार्य गुणभद्र ३. कल्पसूत्र-३७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002126
Book TitleJain Dharma ki Pramukh Sadhviya evam Mahilaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHirabai Boradiya
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1991
Total Pages388
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, History, & Religion
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy