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प्रागैतिहासिक काल की जैन साध्वियाँ एवं विदुषी महिलाएँ : ३७ होकर राम और लक्ष्मण से युद्ध करने चले । भयंकर युद्ध करने के बाद भी राम और लक्ष्मण उन सीता-पुत्रों को परास्त न कर सके । अन्त में नारद द्वारा सीता के पुत्रों का परिचय ज्ञात होने पर राम ने उन्हें गले लगा लिया। सीता ने अपनी पतिव्रतता प्रमाणित करने के लिये अग्नि परीक्षा दी । राम सीता को वापस अपने साथ ले जाना चाहते थे परन्तु सीता को संसार से विरक्ति हो चुकी थी अतः आत्मकल्याण हेतु पृथ्वीमती आर्यिका के पास दीक्षित होकर त्याग-तपस्या आदि करने लगीं ।' - हेमचन्द्राचार्य के अनुसार सीता ने राम से दीक्षित होने की आज्ञा ली
और स्वयं ही मुष्टि केशलुंचन किया तथा जयभूषण मुनि के पास दीक्षित होकर साध्वी सुप्रभा के समुदाय में सम्मिलित हुई । अन्ततः हम इतना अवश्य कहेंगे कि अनेक विषम परिस्थितियों में भी जिस संयम का परिचय देते हए सीता ने अपने सतीत्व के संरक्षण का महान् कार्य किया वह समस्त भारतीय नारी के लिए अनुकरणीय एवं अतिगौरव का विषय है। मन्दोदरी
राजा मय एवं रानी हेमवती की विदुषी कन्या मन्दोदरी भारतवर्ष के १. रविषेणाचार्य, पद्मपुराण, भाग ३, पर्व १००, पृ० २३७ २. हेमचन्द्राचार्य, त्रिषष्टिशलाकापुरुष, पर्व ७, पृ० १७२
सीता रामचरितमानस की प्रधान नायिका हैं। राम अवतार की सार्थकता के लिये सीता राक्षसों के संहार का मूल कारण बनीं। जैन साहित्य एवं पौराणिक ग्रन्थों के आधार पर सीता में हमें एक निश्चयात्मक बुद्धिवाली, निष्कपट, सरल हृदया, आत्म सम्मान के भाव से संपन्न तथा अतिशय स्नेहमयी एवं एक आदर्श कुलवधू का चित्र पाते हैं ( डा० माता प्रसाद गुप्त, तुलसीदास, पृ० ३०९)। मानस में सीता का दैवीकृत रूप विद्यमान है । वह राम की मूल शक्ति है जब कि जैन साहित्य में सीता राम के यथार्थ गृहस्थ जीवन की सहधर्मिणी हैं। वाल्मीकि रामायण में भी जानकी को भार्या कहा गया है। (डॉ० श्यामसुन्दर व्यास, हिन्दी महाकाव्य में नारी चित्रण, पृ० ९९)।
जैन साहित्य एवं रामचरितमानस में सीता के चरित्र के परंपरागत गुण तो विद्यमान हैं ही किन्तु जहाँ मानस में सीता राम की छाया मात्र है और उसका अस्तित्व पृथक् नहीं है। वह अनुगता अबला नारी है, वहाँ जैन
परम्परा में वह एक स्वतन्त्र व्यक्तित्व से युक्त है। ३. पउमचरियं प्र० ख०, ५३, १३-१४ एवं अन्य, पृ० ३४८
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