SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 91
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ७२ जैन धर्म में अहिंसा देना एक समस्या बन जाएगी और वह कष्टकर होगी। अतः भिक्ष को गृहस्थ के द्वारा दी गई कोई भी वस्तु, यहाँ तक कि मांस-मछली भी ग्रहण करने में दोष नहीं है, यदि वह वस्तु भिक्ष के निमित्त न बनी हो । विसुद्धिमग्ग-आचार्य बुद्धघोष ने 'विसुद्धिमग्ग' नामक पुस्तक में बुद्ध के प्रवचनों के आधार पर यह दर्शाने की कोशिश की है कि बौद्धमत में निर्वाण प्राप्त करने का कौन-सा मार्ग है और उस पर किस प्रकार अग्रसर हआ जा सकता है ? उस मार्ग को ही उन्होंने 'विशुद्धिमार्ग' कहा है। 'विशुद्धिमार्ग' को परिभाषित करते हुए वे कहते हैं "विशुद्धि, सब मलों से रहित अत्यन्त परिशुद्ध निर्वाण को जानना चाहिए। उस विशुद्धि का मार्ग-विशुद्धिमार्ग है। निर्वाण की प्राप्ति का उपाय मार्ग कहा जाता है।" विशुद्धिमार्ग कहीं विपश्यना, कहीं ध्यान और प्रज्ञा, कहीं कर्म, कहीं शील २ और कहीं स्मृति-प्रस्थान आदि के अनुसार बताया गया है । 'जीव हिंसा आदि ( करने ) से विरत रहने वाले, या ( उपाध्याय आदि की ) सेवा-टहल करनेवाले की चेतना आदि धर्म ( मानसिक अवस्थाएँ ) शील हैं। 'प्रतिसम्भिदा' के अनुसार शील के चार स्तर होते हैं-चेतना, चैतसिक, संवर एवं अनुल्लंघन । इनमें से दो का सम्बन्ध जीवहिंसा की विरति से है, जैसा कि कहा है-3 "जीव-हिंसा आदि से विरत रहने वाले, या व्रत-प्रतिपत्ति ( व्रताचार) पूर्ण करनेवाले की चेतना ही चेतना-शील है।" ___“जीव-हिंसा आदि से विरत रहने वाले की विरति (अलग होने का विचार ) चैतसिकशील है।" १. विशुद्धिमार्ग-प्राचार्य बुद्धघोष, हि० अनु०-भिक्षु धर्मरक्षित, पहला भाग, पृ० ३. २. सब्बदा सीलसम्पन्नो, पञवा सुसमाहितो। पारद्धविरियो पहितत्तो प्रोघं तरति दुत्तरं । संयुत्त निकाय, २. २. ५. ३. विशुद्धिमार्ग, पहला भाग, पृ० ८. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002125
Book TitleJain Dharma me Ahimsa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBasistha Narayan Sinha
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2002
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy