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जैन धर्म में अहिंसा अहिंसा और ईश्वर : ___ जैनधर्म अनीश्वरवादी है अर्थात् यह ईश्वर की सत्ता को नहीं मानता । अतः इसकी अहिंसा या अन्य किसी सिद्धान्त में ईश्वर का कोई हाथ नहीं है। जो कुछ करता है आदमी स्वयं करता है; भले ही वह अपने कर्मों के फल भोगता है यानी सुख-दुःख पाने में वह अपने कर्म के द्वारा निर्देशित होता है, क्रिया करने में वह स्वतंत्र रहता है। किन्तु गांधीवाद में ईश्वर को स्थान मिला है; ईश्वर अहिंसा-पालन में भी सहायक होता है। गांधीजी ने कहा है
".. अहिंसा केवल बुद्धि का विषय नहीं है; यह श्रद्धा और भक्ति का विषय है। यदि आपका विश्वास अपनी आत्मा पर नहीं है, ईश्वर और प्रार्थना पर नहीं है, तो अहिंसा आपके काम आनेवाली चीज नहीं है।
अहिंसा और दान :
अहिंसा और दान के संबंध पर प्रकाश डालने के सिलसिले में जैनधर्म में बहुत विचार-विमर्श मिलते हैं। इसमें दो चीजें प्रधानतौर से प्रकाश में लाई गई हैं : १. दान पाने का अधिकारी या पात्र तथा २. अनुकम्पादान अहिंसा है अथवा हिंसा। इसमें दो मत मिलते हैं। तेरापंथियों ने सिर्फ संयतियों को छोड़कर किसी को भी दान पाने के योग्य नहीं बताया है, क्योंकि संयतियों के अलावा अन्य लोग कुपात्र हैं या दान लेने के अधिकारी नहीं हैं और कुपात्र को दान देने से पाप होता है। अनुकम्पादान भी एकान्त पाप का साधन है। इन मतों की पूष्टि जयाचार्य के द्वारा 'भ्रमविध्वंसनम्" में की गई है। किन्तु आचार्य जवाहिरलालजी ने "सद्धर्ममण्डन" में जयाचार्य के मत का खण्डन करते हुए कहा है कि अनुकम्पादान एकान्त पाप का साधन नहीं बल्कि पुण्य का साधन है। गांधीवाद में भी दान देने के लिए पात्र का विचार करना अनिवार्य बताया गया है। इसके अनुसार दान पाने का अधिकारी केवल वही है जो अपंग और अपाहिज है। अपंग और अपाहिज
१. गांधी जी, अहिंसा, द्वितीय भाग, खण्ड १०, पृ० १६९.
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