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________________ २५६ जैन धर्म में अहिंसा अहिंसा तथा उसका स्वरूप : गांधीवाद तथा जैनधर्म दोनों ने ही माना है कि प्राणीमात्र के प्रति राग-द्वेष यानी दुराव, दुर्भाव का त्याग करना अहिंसा है। अहिंसा का विस्तार सिर्फ मनुष्य तक ही नहीं, बल्कि संसार के सभी प्राणियों तक है। चूंकि हिंसा मन, वाणी और क्रिया तीनों से की जाती है, अहिंसा का भी शुद्ध स्वरूप रागद्वेष आदि से उत्पन्न हिंसात्मक कार्यों से मनसा, वाचा और कर्मणा बचने में ही देखा जा सकता है। अर्थात् अहिंसा के दो स्वरूप हैं-भाव और द्रव्य । इनकी स्पष्टता जैनधर्म में विशेष रूप से मिलती है । गांधीवाद में यद्यपि इनके नामकरण नहीं हुए हैं, मन, वाणी और क्रिया के आधार पर इस प्रकार के विभाजन हो सकते हैं। जैनमतानुसार मन, वाणी और क्रिया हिंसा अथवा अहिंसा के तीन योग हैं और करना, करवाना तथा अनुमोदन करना तीन करण हैं जिनके संयोग से हिंसा या अहिंसा करने के नौ प्रकार हो जाते हैं, यानी अहिंसा की नौ राहें हैं । जो व्यक्ति इन नौ प्रकारों से अहिंसा का पालन करता है वही पूर्ण अहिंसक माना जाता है। किन्तु ऐसी बात गांधीवाद में नहीं पाई जाती। वह तीन योग से आगे तीन करण अर्थात् करना, करवाना और अनुमोदन करने पर अपना कोई स्पष्ट विचार व्यक्त नहीं करता। वैसे विवेचन करने पर गांधीवाद में भी यही बात फलित होती है। जीव : जैनधर्म ने जीव के छः प्रकार बताये हैं-पृथ्वीकाय, अप्काय, अग्निकाय, वायुकाय, वनस्पतिकाय, त्रसकाय । अर्थात् स्वत: मिट्टी, जल, अग्नि आदि में प्राण हैं और अहिंसक को इन सबों की हिंसा से भी बचना चाहिए। इसके अलावा इसने विभिन्न कायों की हिंसा होने के विभिन्न कारण बताये हैं-जैसे पृथ्वीकाय की हिंसा पृथ्वी को जोतने, बावड़ी बनाने, तालाब खोदने, कूप खोदने, क्यारी बनाने आदि से होती है। अतः एक पूर्ण अहिंसक को इन कार्यों से बचना चाहिए। लेकिन गांधीवाद में ऐसी बात नहीं मिलती। गांधीजी ने कहा है कि अग्नि जलाने से स्थान और काल के अनुसार, तथा हरी वनस्पति पर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002125
Book TitleJain Dharma me Ahimsa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBasistha Narayan Sinha
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2002
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size13 MB
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