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जैन धर्म में अहिंसा
क्रिया ही है, क्योंकि क्रिया इसी से निर्देशित होती है । अतएव ऐसा नहीं कहा जा सकता कि अहिंसा निष्क्रिय है तथा दया सक्रिय है, बल्कि दोनों ही सक्रिय हैं ।
जो सर्वभक्षी है, यानी सभी प्रकार के जीवों के मांस, मछली आदि खाता है, किसी से परहेज नहीं रखता वह यदि दया या प्रेम से प्रेरित होकर अपनी भक्ष्य वस्तुओं की मर्यादा या सीमा कायम कर देता है तो इसका मतलब है कि वह अपने द्वारा की गई हिंसा की सीमा निर्धारित करता है । जब हिंसा सीमाबद्ध हो जाती है, तब निश्चित ही अहिंसा का विस्तार होता है । अतः जहां अहिंसा है, वहां ज्ञानपूर्ण दया होती है ।
जो काम हम लोगों से नहीं हो सकते या जिस काम के करने का कुछ अर्थ नहीं, ऐसे दया के केवल दिखाऊ काम हम करते हैं और जो दया के कार्य हम कर सकते हैं, उन्हें नहीं करते। धीरा भगत की भाषा में कहें तो हमलोग निहाई की चोरी करते हैं और रूई का दान करने का ढोंग करते हैं। गीता की भाषा में कहें तो स्वधर्म का, जो हमारे लिए सुलभ है, थोड़ा-सा भी पालन करना छोड़कर हम परधर्म के पालन के बड़े-बड़े विचार करते हैं, और 'इतो भ्रष्टस्ततो भ्रष्टः' हो जाते हैं । ऐसी भूलों से हमें बचना चाहिये ।'
जीव दया आत्मा का एक महान् गुण है । अतः इसकी सीमा इतनी छोटी नहीं है कि कुछ जीवों को बचाकर ही कोई इसका पूर्ण पालन कर ले । एक व्यक्ति चींटियों के लिए सत्तू छींटकर समझता है कि वह बहुत बड़ा दयावान है, लेकिन उसके बगल में ही यदि किसी के घर में चींटियों का उपद्रव हो रहा है, फलस्वरूप उसके भोज्य पदार्थ गन्दे हो जाते हैं, बिछावन सोने के लायक नहीं रह जाती, ऐसी हालत में चींटियों को सत्तू देनेवाला कहाँ तक अहिंसा करता है या हिंसा । कोई व्यक्ति कुत्ते या अन्य जानवरों को जो उसे हानि पहुँचाते हैं, मारता पीटता नहीं और उन्हें पिंजड़े में बन्द करके दूसरे गांव में छोड़ आता है, जहां कि वे जानवर फसल की बर्बादी या अन्य
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१. गांधीजी, अहिंसा, प्रथम भाग, खंड १०, पृष्ठ २६.
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