SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 259
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २४० जैनधर्म में अहिंसा उखाड़ना भी बुरा है, क्योंकि घास-पात में भी जीव होते हैं और इन बातों को देखते हुए, जब एक व्यक्ति जीवनयापन में पहुँचनेवाली कठिनाइयों को गांधीजी के समक्ष रखता है तो वे कहते हैं अहिंसा के पूर्ण पालन की अवस्था में अवश्य ही जीवन की स्थिति असंभव हो जाती है। अतएव हम सब मर जायं तो परवाह नहीं, सत्य को कायम रहने देना चाहिए। प्राचीन ऋषि-मुनियों ने इस सिद्धान्त को आखिरी मर्यादा तक पहुँचाया है और यह कह दिया है कि भौतिक जीवन एक दोष है, एक जंजाल है । मोक्ष देहादि के परे ऐसी अदेह-सूक्ष्म अवस्था है जहाँ न खाना है, न पानी है और इसलिए जहाँ न दूध दुहने की आवश्यकता है और न घासपात को तोड़ने की ।" इतना कहने और सोचने के बावजूद भी गांधीजी से सूक्ष्म कीटाणुओं मच्छर आदि की यदि हिंसा हो जाती थी तो वे यह नहीं मानते थे कि चूंकि छोटे कीटाणु हैं, इनकी हिंसा के लिए क्या सोचना-विचारना, बल्कि वे दुःखित होते थे, उनके घात के लिए तथा विज्ञान की असमर्थता के लिए कि आजतक विज्ञान ने कोई ऐसा उपाय नहीं निकाला, जिससे कि सूक्ष्म प्राणियों की हिंसा करने से आदमी अपने को बचा पाए । हिंसा के बाह्य कारणा : इस संसार में जो भी देहधारी है वह किसी न किसी रूप में हिंसा करता ही है । यदि वह एक जगह खड़ा भी रहता है तो भी वह भोजन स्वरूप अन्न, फल, वनस्पति तो लेता ही है । इसके अलावा मच्छरों आदि की जान लेता है तथा समझता है कि ऐसा करने में कोई भी दोष नहीं है । इन हिंसाओं के प्रमुख तीन कारण हैं - १. गांधीजी, अहिंसा, प्रथम भाग, खण्ड १०, पृष्ठ २१. २. द्वितीय भाग, ,, आमुख . प्रथम भाग, •, पृष्ठ ६४-६५. " "1 Jain Education International "" "" For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002125
Book TitleJain Dharma me Ahimsa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBasistha Narayan Sinha
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2002
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy