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जैनधर्म में अहिंसा
षडावश्यक:
जो क्रियाएं प्रतिदिन की जाती हैं तथा आवश्यक समझकर की जाती हैं उन्हें आवश्यक कहा जाता है। ये छः प्रकार की होती हैं :
१. सामायिक, २. चतुर्विंशतिस्तव, ३ वन्दना, ४. प्रतिक्रमण, ५. कायोत्सर्ग तथा. ६. प्रत्याख्यान ।'
सभी जीवों को सम या समान समझना सामायिक कहलाता है। जो सभी प्राणियों को बराबर समझेगा वह किसी की भी हिंसा जानबूझकर नहीं करेगा। चौबीस.तीर्थ करों की स्तुति करने को चतविंशतिस्तव कहते हैं। गुरु की वन्दना करना वन्दन कहलाता है। गुरु की वन्दना इसलिए की जाती है कि वह सद्ज्ञान देता है। की गई गलतियों को सुधारना प्रतिक्रमण कहा जाता है। शरीर-सम्बन्धी ममता का त्याग कायोत्सर्ग कहा जाता है। कायोत्सर्ग की स्थिति में हिलनाडोलना, बोलना-चलना, उठना आदि बन्द रहता है जिससे जीवों की हिंसा रुकती है। प्रत्याख्यान का मतलब है त्याग । यद्यपि मुनिगण हिंसादि दोषों को प्रायः त्याग ही देते हैं, वे आवश्यक वस्तओं में से भी कुछ को कुछ काल या सर्वदा के लिये त्याग देते हैं, जिससे हिंसा होने की संभावना और कम हो जाती है।
१. आवश्यकसूत्र पूर्ण तथा उत्तराध्ययन, अध्ययन २६.
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