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जैनाचार और अहिंसा
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गमन नहीं करना चाहिये और कुमार्ग को त्यागना चाहिए तथा चार प्रकार की यतना - द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव को हमेशा ही ध्यान में रखना चाहिए। यानी वह आंखों से देखकर अपने से आगे की चार हाथ भूमि को देखता हुआ चलें, क्योंकि ऐसा न करने से राह में पड़े हुए जीवों की हिंसा होगा । और जब तक वह चले, विषयों और पांच प्रकार के स्वाध्यायों को वर्जित करता हुआ चले | बोलने के समय यह ध्यान रखे कि क्रोध, मान, माया, लोभ, हास्य, भय आदि से युक्त वचन न बोले जायें। आहार, उपधि, शय्या इन तोनों की शुद्धि पर साधु की सदा दृष्टि रहनी चाहिये यानो गवेषणा, ग्रहणेषणा तथा परिभागेषणा यत्नपूर्वक तथा शुद्धतापूर्वक करनी चाहिये। रजोहरण, ओघउपधि, पाट, पाटला आदि को ग्रहण करते हुए और रखते हुए भी शुद्धता का ख्याल करना चाहिए। आंखों से देखकर इन्हें लना या इनका प्रयोग करना चाहिये । साधु को अपने मलमूत्र को भी उसकी विधि के अनुसार त्यागना या परठना चाहिये । उस स्थान को मलमूत्र त्यागने या परठने के काम लाना चाहिये जहां न कोई आता हो आर न कोई उसे देखता हो, जो अचित्त हो यानी जहाँ पर हिंसा होने का संभावना नहीं हो तथा जहां चूहे आदि के बिल न हों। इस तरह गुप्तियों का पालन करना श्रमण के लिये आवश्यक होता है । मन, वचन और काय इन तानों ही गुप्तियों के सत्या, असत्या, मृषा तथा असत्यामृषा ये चार-चार रूप होते हैं । मनगुप्ति के अनुसार साधु को चाहिये कि वह अपने मन को संरम्भ, समारम्भ तथा आरम्भ की ओर जाने से रोके । वचनगुप्ति यह सिखाती है कि साधु को संरम्भ, समारम्भ तथा आरम्भ में प्रवृत्त होनेवाले शब्दों का उच्चारण नहीं करना चाहिये, तथा कायगुप्ति बताती है कि साधु अपने शरीर को संरम्भ-समारम्भ में जाने से रोके । इस प्रकार समितियां तथा गुप्तियां साधु के जीवन को संयमित बनाने में उसे सहायता प्रदान करती हैं ।'
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क
-आचारांगसूत्र, द्वितीय श्र तस्कन्ध, प्रथम चूला, तृतीय अध्याय, सूत्र ११४, पृ० १०६८
ख --
- आचारांगसूत्र, द्वि०श्रु०, चूला २, अ० ३, सूत्र १६५, पृष्ठ १२६१. ग- उत्तराध्ययनसूत्र, अध्ययन २४.
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