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________________ २२६ जैनधर्म में अहिंसा समीचीनधर्मशास्त्र में अनर्थदण्ड के पांच भेद किये गये हैं -पापोपदेश, हिंसादान, अपध्यान, दुःश्र ति, प्रमादचर्या ।' इन पांच में से चार तो वे ही हैं जिनका वर्णन उपासकदशांगसूत्र में मिलता है लेकिन दुःश्रुति अधिक है । दुःश्रुति से मतलब है उन शास्त्रों से जो आरम्भ, परिग्रह, साहस जो शक्ति तथा नीति पर ध्यान दिये बिना किया जाता है, मिथ्यात्व, द्वेष, राग, मद और मदन को प्रतिपादित करते हों। उन्हें पढ़ना या सुनना । इस प्रकार अपने अथवा अपने कुटुम्ब के जीवन-निर्वाह के निमित्त होनेवाले अनिवार्य सावध अर्थात् हिंसापूर्ण व्यापार-व्यवस्था के अतिरिक्त समस्त पापपूर्ण प्रवृत्तियों से निवृत्त होना अनर्थदण्डविरमण व्रत है। इस गुणव्रत से प्रधानतया अहिंसा एवं अपरिग्रह का पोषण होता है। अनर्थदण्डविरमण व्रतधारी श्रावक निरर्थक किसी की हिंसा नहीं करता और न निरर्थक वस्तु का संग्रह ही करता है, क्योंकि इस प्रकार के संग्रह से हिंसा को प्रोत्साहन मिलता है।३।। शिक्षावत: अणुव्रत और गुणव्रत से शिक्षाव्रत भिन्न है, क्योंकि इसे बार-बार ग्रहण करके इसका अभ्यास किया जाता है। जिस प्रकार विद्यार्थी अपने पाठ का अभ्यास करता है उसी प्रकार श्रावक इस व्रत का अभ्यास करता है और इसोलिये इसे शिक्षावत की संज्ञा दी गई है। इसके चार भेद हैं : १. पापोपदेश-हिंसादानाऽपध्यान-दुःश्रु तीः पंच।। प्राहुः प्रमादचर्यामनर्थ दण्डानदण्डधरः ॥६॥ ७५ ॥ - समीचीन धर्मशास्त्र. २. आरम्भ-संग-साहस-मिथ्यात्व-द्वेष-राग-मद-मदनैः । चेतः कनुषयतां श्रु तिरवधीनां दुःश्रु तिर्भवति ॥ १३ ।। ७६ ॥ -समीचीन धर्मशास्त्र. ३. जैन आचार, डा. मोहनलाल मेहता, पृष्ठ १११. ४. देशाधकाशिकं वा सामयिकं प्रोषधोपवासो वा। वैय्यावृत्त्यं शिक्षाव्रतानि चत्वारि शिष्टानि ॥ १ ॥६१ ॥ -समीचीन धर्मशान. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002125
Book TitleJain Dharma me Ahimsa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBasistha Narayan Sinha
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2002
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size13 MB
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