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________________ जैनाचार और अहिंसा २२७ सामायिकवत -सामायिक पद, दो शब्दों के संयोग से बने हुए 'समाय' शब्द पर आधारित है। वे दो शब्द हैं - 'सम' और 'आय' । 'सम' का अर्थ होता है 'समता', 'बराबरी' तथा 'आय' से समझा जाता है आमदनी या लाभ। इस प्रकार 'समाय' का तात्पर्य हुआ 'समभाव' या समलाभ की प्राप्ति या यों कहा जाय कि समता की प्राप्ति । अतः समभाव लानेवाली क्रिया को सामायिक कहा जा सकता है। कुछ और स्पष्ट ढंग से यह कहा जा सकता है कि त्रस और स्थावर प्राणियों के प्रति समदृष्टि या समभाव रखना ही सामायिक है। समन्त. भद्र के अनुसार मुक्ति पर्यन्त हिंसादि पांच पापों का पूर्णरूपेण त्याग करना हो 'सामयिकवत' है।' देशावकाशिकवत- दिशापरिमाणव्रत में यह निश्चित किया जाता है कि श्रावक अपने जीवन में आवागमन कहां तक करेगा, लेकिन उसमें भी कुछ घंटे या कुछ दिनों के लिए यदि वह विशेष मर्यादा कायम कर देता है, उस मर्यादा को ही देशावकाशिक व्रत कहते हैं। दिशापरिमाण व्रत करने से श्रावक हिंसा करने से बचता है, क्योंकि कम दूरी में चलने से कम कायों या कम जीवों से ही उसका सम्पर्क हो पाता है. अतः कम जीवों की हिंसा होती है और यदि सामान्य मर्यादित क्षेत्र में होनेवाले आवागमन को वह विशेष मर्यादित कर देता है. इसका मतलब है कि वह और कम हिसा करेगा। पौषधोपवासव्रत- शान्तिपूर्ण ढंग से विशेष नियमपूर्वक उपवास करना तथा सावध क्रियाओं का त्याग करना पौषधोपवासव्रत कहा जाता है। समीचीनधर्मशास्त्र में कहा गया है कि चतुर्दशी और अष्टमी को अन्न, पान (पेय ), खाद्य तथा लेह्यरूप से चार प्रकार के आहारों का शुभ संकल्पों के साथ त्याग करना ही पौषधोपवास व्रत है। १. आसमयमुक्ति मुक्तं पंचाऽघानामशेषभावेन ।' सर्वत्र च सामयिकाः सामयिकं नाम शंसन्ति ॥ ७ ॥ ९७ ॥ - समीचीन धर्मशास्त्र. २. पर्वण्यष्टम्यां च ज्ञातव्यः प्रोषधोपवासस्तु । चतुरभ्यवहार्याणां प्रत्याख्यानं सदिच्छाभिः ॥ १६॥ १०६ ॥ -समीचीन धर्मशास्त्र. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002125
Book TitleJain Dharma me Ahimsa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBasistha Narayan Sinha
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2002
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size13 MB
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