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जैनाचार और अहिंसा
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इस तरह उपभोगपरिभोग व्रत के जितने भी अतिचार हैं, चाहे वे भोजन- सम्बन्धी हों या कर्म-सम्बन्धी, सभी हिंसा की ओर ही ले जानेवाले हैं । अतः हिंसा से बचने के लिये इन्हें जानना चाहिये और इनका त्याग करना चाहिये ।'
अनर्थदण्डव्रत - धर्म, अर्थ और काम को ध्यान में रखते हुए यानी इन तीनों की प्राप्ति के हेतु कोई भी व्यक्ति कुछ करता है । लेकिन जिस कार्य से इन तीनों में से किसी की भी प्राप्ति न हो उसे अनर्थदण्ड कहते हैं। ऐसे कार्य से करनेवाले की स्वार्थपूर्ति नहीं होती किन्तु दूसरे की हानि हो जाती है। इसके चार लक्षण या प्रकार हैं- २ १. अपध्यानाचरित - दुश्चिन्ता की उत्पत्ति दो प्रकार से होती है :
जब सन्तान, स्वास्थ्य आदि इष्ट वस्तुओं की प्राप्ति नहीं होती तो व्यक्ति के मन में तरह-तरह की मानसिक चिन्ताएं पैदा होती हैं, जिन्हें आर्तध्यान के अन्तर्गत लिया जाता है ।
कभी-कभी शत्रुतावश या क्रोधवश मनःस्थिति चंचल हो जाती है, जिसे रौद्रध्यान कहते हैं । ये दोनों हो, खासतौर से रौद्रध्यान, मन को हिंसा की ओर प्रेरित करते हैं ।
२. प्रमादाचरित - आलस्यपूर्ण जीवन, जिस जीवन में असावधानी हो, शिथिलता हो । बिना काम के बैठे हुए लोगों के द्वारा दूसरों की शिकायत का होना, शृंगारयुक्त वार्तालाप करना ।
३ हिंस्रप्रदान- किसी को हिंसक साधन देकर हिंसापूर्ण कार्यों में उसका सहायक बनना ।
४. पापकर्मोपदेश - उस प्रकार का उपदेश देना जिससे सुननेवाला विभिन्न प्रकार के पापों में प्रवृत्त हो ।
१. उपासक दशांग सूत्र, प्र० अ०, पृष्ठ ६५ ७. समीचीन धर्मशास्त्र, अ० ४, कारिका ८३-६०. योगशास्त्र, श्लोक ८८. ११३.
वसुनन्दिकृत श्रावकाचार, श्लोक २१६, पृष्ठ ८८०
२. तं जहा अवज्झाणायरियं, पमायायरियं, हिंसप्पयाणं, पाव-कम्मो एसे ।
- उपा० सू०, प्र० अ०, पृष्ठ ४४.
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