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________________ २१४ जैन धर्म में अहिंसा अहिंसा मरणोन्मुख अथवा अरक्षित होती है । अत: सत्य का महत्त्व देखते हुए मृषावाद से बचने का उपदेश दिया है । किन्तु गृहस्थों के लिये स्थूल मृषावाद का त्याग ही व्रत पालन के लिये अनिवार्य माना गया है। स्थूल मृषावाद अथवा मोटा झूठ की श्रेणी में निम्नलिखित कार्य आते हैं १. कन्यालोक-विवाह के संबंध में बातचीत करते हुए आयु, शरीर, वाणी तथा मस्तिष्क-संबंधी कन्या के दोषों को छिपाना या उसके वास्तविक गुण को बहुत अधिक बढ़ाचढ़ा कर कहना। २. गवलीक-पशु के लेन-देन में जो बैल कम काम करने वाला हो, उसके विषय में यह कहना कि बहुत अधिक काम करनेवाला है तथा गाय-भैंस को अधिक दूध देनेवाली बताना, जबकि वह कम ही दूध क्यों न देती हो। " ३. भूम्यलोक-खेती-बारी तथा निवास स्थान के संबंध में असत्य बातें करना। ४. न्यासापहार-किसी संस्था या सामाजिक कार्य के लिये संग्रह की हुई सम्पत्ति या किसी के धरोहर को हड़प लेना। ५. कूडसक्खिज्ज - झूठा साक्षी बनना। ६. सन्धिकरण- षड्यन्त्र रचना । आश्वासन देकर या विश्वास दिलाकर झूठ बोलना। गृहस्थ सूक्ष्म झूठ को त्यागने में असमर्थ होता है। क्योंकि पारिवारिक तथा सामाजिक बहुत से ऐसे कार्य होते हैं, जिनमें उसे झूठ किसी न किसी रूप में बोलना ही पड़ता है। लेकिन ऊपर कथित मोटे झूठ से तो उसे बचना ही चाहिये अन्यथा वह श्रावक धर्म को नहीं निभा सकता । वसुनन्दि ने तो श्रावकाचार में कहा है कि राग-द्वेष के १. जैन आचार, डा. मोहनलाल मेहता, पृष्ठ ६२. २. उपासकदशांग सूत्र, प्रथम अध्ययन, सूत्र १४. " पृष्ठ ५३-५४. स्थूलमलीकं न वदति न परान्वादयति सत्यमपि विपदे । यत्तद्वदन्ति सन्तः स्थूलमृषावाद-वेरमणम् ॥९॥५५।। -समीचीन धर्मशास्त्र. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002125
Book TitleJain Dharma me Ahimsa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBasistha Narayan Sinha
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2002
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size13 MB
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