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जैनाचार और अहिंसा
२१३ 'यहाँ वध का अर्थ हत्या नहीं है । हत्या करने पर तो व्रत सर्वथा टूट जाता है । अतः वह अनाचार है । यहाँ वध का अर्थ है घातक प्रहार, ऐसा जिससे अंगोपांगादि को हानि पहुंचे। अर्थात् निर्दयता पूर्वक अपने आश्रित मनुष्यों तथा गाय, बैल, घोड़ा, भैंस आदि पशुओं को चाबुक, डंडा, ईट, पत्थर, आदि से मारना; अपनी स्वार्थपूर्ति के लिये शोषण करना या अन्य प्रकार से प्राणियों को संताप पहुंचाना।
छविच्छेद क्रोधवश या अपनी प्रसन्नता के लिये किसी प्राणी का अंग छेदन करना छविच्छेद कहा जाता है। इसी के समान वृत्तिच्छेद भी समझा जाता है, क्योंकि वेतन या मजदूरी कम देना तथा छुट्टी आदि की उचित सुविधा न देना भी दोषयुक्त और कष्टप्रद होता है।
अतिभार-बैल, घोड़े, ऊंट आदि पशुओं पर तथा नौकर, मजदूर और अपने परिवार के व्यक्ति पर शक्ति से अधिक बोझ लादना अतिभार की श्रेणी में आता है । इसके अलावा अपने समय और शक्ति को बचाकर दूसरों से काम लेना भी अतिभार समझा जाता है। ____ अन्नपाननिरोघ- इसका अर्थ होता है खान-पान में कटौती करना या खान-पान-संबंधी कष्ट देना। मूक पशु पक्षियों को भोजन कम देकर या न देकर उन्हें भूखा-प्यासा रखना अन्नपान निरोध कहलाता है । अपने अधीन या आश्रित मनुष्यों को भी पर्याप्त भोजन न देना इसी अतिचार का अंग है। __ अतः श्रावक को इन सभी कष्टदायक अतिचारों को जानना चाहिये और इनसे सर्वदा बचने की कोशिश करनी चाहिये। __स्थूल मृषावाद-विरमण-सत्य और अहिंसा का इतना अधिक घनिष्ठ संबंध है कि एक के अभाव में दूसरे की आराधना अशक्य है। ये दोनों परस्पर पूरक तथा अन्योन्याश्रित हैं। अहिंसा यथार्थता को सुरूप प्रदान करती है, जब कि यथार्थता अहिंसा की सुरक्षा करती है। अहिंसा के बिना सत्य नग्न अथवा कुरूप होता है जबकि सत्यरहित
१. उपासकदशांग सूत्र, पृष्ठ ५१.
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