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जैन धर्म में अहिंसा विपरीत सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य तथा अपरिग्रह अहिंसा के पोषक तत्व हैं। यानी इनमें से किसी एक को छोड़ देने से अहिंसावत का पूर्णरूपेण पालन नहीं हो सकता। झूठ बोलने वाले को एक झूठ को छिपाने के लिये अनेक झुठ बोलने पड़ते हैं, जिससे स्वयं तो उसकी आत्मा कष्ट पाती है और अपवित्र होती है, दूसरे प्राणियों को भी वह दुःखद स्थिति में डालता है। चोरी न करनेवाला अन्य व्यक्ति को उस प्रकार का कष्ट नहीं देता जो प्रियवस्तु के हरण से होता है। ब्रह्मचर्य पालन से आदमी उन सभी प्रकार की हिंसाओं से बच पाता है, जो मैथुन आदि सम्मति या बलात्कार दोनों ही करने से होती है। इसी प्रकार अपरिग्रही आदमी को किसी के प्रति राग या द्वेष का शिकार नहीं बनना पड़ता। वह किसी को कष्ट नहीं पहुंचाता। अतएव सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य
और अपरिग्रह, अहिंसा के पोषक या सहायक तत्त्व है, इसमें कोई शक नहीं । तत्त्वार्थसूत्र के विवेचन-कर्ता ने लिखा भी है
अहिंसा अन्य व्रतों की अपेक्षा प्रधान होने से उसका प्रथम स्थान है। खेत की रक्षा के लिए जैसे बाड़ होती है, वैसे ही अन्य सभी व्रत अहिंसा की रक्षा के लिये हैं: इसी से अहिंसा की प्रधानता मानी गई है।
अहिंसा का तात्विक विवेचन : व्यक्ति की मुक्ति के लिये या चित्तशुद्धि और वीतरागता प्राप्त करने के लिये अहिंसा की ऐकान्तिक चारित्रगत साधना उपयुक्त हो सकती है; किन्तु संघरचना और समाज में उस अहिंसा की उपयोगिता सिद्ध करने के लिए उसके तत्त्वज्ञान की खोज न केवल उपयोगी ही है, किन्तु आवश्यक भी है ।
महावीर के समय में आत्मनित्यवाद ( आत्मा को नित्य माननेवाला), उच्छेदवाद तथा उपनिषदों आदि की विभिन्न दार्शनिक ( तात्त्विक ) धाराएं प्रवाहित हो रही थीं। इसके अलावा महावीर १ तत्त्वार्थ सूत्र-विवेचनकर्ता पं० सुखलालजी संघवी, पृ० २०४. २ जैनदर्शन, पं० -महेन्द्रकुमार न्यायाचार्य, पृ० ५९.
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