SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 220
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन दृष्टि से अहिंसा २०१ उचित नहीं। क्योंकि जिस व्यवहार से एक व्यक्ति दूसरे को कष्ट पहुंचाता है यदि वही व्यवहार उसके साथ भी किया जाये तो उसे भी आनन्द नहीं बल्कि कष्ट ही मालूम होगा । इसीलिये कहा गया है कि श्रुत एवं चारित्र धर्म को सही रीति से कहनेवाला और तीर्थकरों की वाणी में विश्वास करनेवाला प्रासुक आहार से जीवन निर्वाह करने वाला उत्तम साधु सभी प्राणियों को अपने ही समान समझता हुआ संयम का पालन करे। परन्तु अहिंसा पालन करने का यह प्रधान कारण नहीं है, यद्यपि सामान्य जानकारी में इसी को प्रधानता मिलती है। अहिंसा के मार्ग पर चलने का मुख्य उद्देश्य है आत्म-कल्याण । हिंसा करनेवाला व्यक्ति दूसरे का अनिष्ट करने के पहले अपना अनिष्ट करता है, हिंसा का भाव मन में लाकर वह अपनी आत्मा का पतन करता है, दूसरों से वैर बढ़ाकर उन्हें अपना शत्रु बना लेता है । इस प्रकार वह पहले अपनी भाव तथा द्रव्याहिंसाय करता है। इसके विपरीत यदि कोई अहिंसा को अपनाता है, सबको समान दृष्टि से या आत्मवत देखता है तो उसका कोई भी शत्रु नहीं होता। अत: उसकी द्रव्य हिंसा नहीं होती और चकि वह सब को समान समझता है, उसके मन में किसी के प्रति द्वेष नहीं पैदा होता, इसलिए उसका मन दूषित नहीं होता, उसकी आत्मा शद्धि होती है, पवित्र होती है। आत्मशुद्धि के कारण वह मोक्षमार्ग पर अग्रसर होता है और आगे चलकर जन्म-मरण के बंधन से छूटकर मुक्त हो जाता है । अर्थात् अहिंसा पालन से मोक्ष की प्राप्ति होती है। इसी वजह से प्रश्नव्याकरणसूत्र में अहिंसा का प्रथम नाम 'निर्वाण' दिया गया है। इस प्रकार अहिंसा पालन करने के दो कारण या दो फल हुए१. आत्मकल्याण या मोक्षप्राप्ति और २ अन्य प्राणियों के प्रति उपकार। अहिंसा के पोषक तत्व : हिंसा का विवेचन करते हुए हमलोगों ने देखा है कि असत्य, स्तेय, अब्रह्मचर्य तथा परिग्रह इसके पोषक तत्त्व हैं। ठीक इसके १. सूत्रकृतांग, प्र० श्रु• अध्ययन १०, सत्र ३. २. प्रश्नव्याकरण सूत्र, द्वितीय श्रुत स्कन्ध, प्रथम संवरद्वार । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002125
Book TitleJain Dharma me Ahimsa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBasistha Narayan Sinha
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2002
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy