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________________ जैन दृष्टि से अहिंसा १८३ तिविहेणवि पाण मा हणे, आयहिते अणियाणसंवुडे । ( तिविहेणवि ) मन, वचन और काय इन तीनों से (पाण मा हणे) प्राणियों को न मारना चाहिये।' इस परिभाषा में मन, वचन और कर्म अर्थात् तीन योग की प्रधानता दिखाई गई है। तए णं से आणंदे गाहावई समणस्त भगवओ महावीरस्स अंतिए तप्पढमयाए थूलगं पाणाइवायं पच्चक्खाइ जावज्जीवाए दुविहं तिविहेणं न करेमि न कारवेमि, मणसा वयसा कायसा ॥ १३॥ इसके पश्चात् आनन्द गाथापति ने श्रमण भगवान् महावीर के पास अखिल व्रतों में श्रेष्ठ प्रथम व्रत के रूप में स्थूल प्राणातिपात अर्थात् स्थूल हिंसा का दो करण तीन योग से परित्याग किया। उसने निश्चय किया कि यावज्जोवन मन, वचन और शरीर से स्थूल प्राणातिपात न स्वयं करूंगा और न दूसरों से कराऊंगा। ___ यहाँ पर अहिंसा को तोन योग तथा दो करण के बीच रखा गया है। किन्तु आवश्यकसूत्र में अहिंसा की पूर्ण परिभाषा मिलती है। इसमें कहा है करेमि भंते ! सामाइयं सव्वं सावज्जं जोगं पच्चक्खामि, जावज्जीवाए तिविहं तिविहेणं, मणेणं वायाए कारणं, न करेमि न कारवेमि करतंपि अन्नं न समणुजाणामि । अहो भगवन् ! मैं समभाव में आत्मस्थापन करने के लिए सामायिक व्रत करता हूँ, इसमें सर्वथा प्रकार से सावध योग प्रवृत्ति का यावत् जीवन तक प्रत्याख्यान करता हूँ। तीन करण और तीन जोग कर। इसमें १ सूत्रकृतांग, प्र. खं०, अध्ययन २, उहे. ३, गाथा २१, पृ० २९८. २ उपासकदशांगसूत्र अनु० आत्मारामजी प्रा. अध्ययन, सूत्र १३, पृष्ठ २३-२४. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002125
Book TitleJain Dharma me Ahimsa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBasistha Narayan Sinha
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2002
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size13 MB
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