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________________ १८४ जैन धर्म में अहिंसा तीन जोग सो मन कर, वचन कर और काया कर, तीन करण सो स्वयं करूं नहीं, अन्य के पास कराऊँ नहीं, अन्य करते को अच्छा जानू नहीं। इसके अनुसार किसी भी जीव की तीन योग और तीन करण से हिंसा न करना ही अहिंसा है। यह जैनदृष्टि से अहिंसा की वास्तविक परिभाषा है। इन तीन योग और तीन करण के संयोग से नव प्रकार बन जाते हैं, जो इस प्रकार हैं तीन योग (मन, वचन, कर्म ), तीन करण ( करना, करवाना, अनुमोदन करना)=९ योग करण । अर्थात् १. मन से हिंसा न करना २. मन से हिसा न करवाना ३. मन से हिंसा का अनुमोदन न करना १. वचन से हिंसा न करना २. वचन से हिंसा न करवाना ३. वचन से हिंसा का अनुमोदन न करना १. काय से हिंसा न करना २. काय से हिंसा न करवाना ३. काय से हिंसा का अनुमोदन नहीं करना। इन नव प्रकारों से किसी भी प्राणी का घात न करना ही अहिंसा है । यही जैनदृष्टि से अहिंसा का वास्तविक सिद्धान्त है। नियमसार में प्रथम व्रत अहिंसा को इस प्रकार परिभाषित किया गया है : कुलजोणिजीवमग्गाण-ठाणाइसु जाणऊण जीवाणं । तस्सारं भणियत्तण-परिणामो होइ पढमवदं ॥५४ ॥ १. आवश्यकसूत्र-अमोलक ऋषि, मथम आवश्यक, सूत्र ३, पृष्ठ ७. २. नियमसार-कुन्दकुन्दाचार्य, सं• उग्रसेन, अध्ययन , नियम ५६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002125
Book TitleJain Dharma me Ahimsa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBasistha Narayan Sinha
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2002
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size13 MB
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