SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 201
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १८२ जैन धर्म में अहिंसा यद्यपि इस कथन के मूल में 'अहिंसा' शब्द का प्रयोग नहीं हुआ है, व्याख्याकार ने वस्तु एवं विषय की स्पष्टता के लिए इसमें 'अहिंसा' शब्द बढ़ा दिया है, क्योंकि इस कथन में जो भी बातें कही गई हैं, वे अहिंसा पर ही लागू होती हैं तथा इसमें जिस शुद्ध धर्म का प्रतिपादन हुआ है, उसे अहिंसा ही माना गया है। सूत्रकृतांग में पाया जाता है सव्वाहि अणुजुत्तीहि, मतिमं पडिलेहिया। सव्वे अक्कंतदुक्खा य, अतो सब्वे न हिसया ॥९॥ एयं खु णाणिणो सारं, जं न हिसति कंचण । अहिंसा समयं चेव, एतावंतं विजाणिया ॥१०॥ अर्थात्-बुद्धिमान सब युक्तियों के द्वारा इन जीवों का जीवपना सिद्ध करके ये सभी दु:ख के द्वेषी हैं (यानी दुःख अप्रिय है ) यह जाने तथा इसी कारण किसी की भी हिंसा न करे। ज्ञानी पुरुष का यही उत्तम ज्ञान है कि वे किसी जीव की हिंसा नहीं करते हैं, अहिंसा का सिद्धान्त भी इतना ही जानना चाहिये ।' । इस परिभाषा में तीन बातें बताई गई हैं -- १. बुद्धिमान को सभी युक्तियों के द्वारा जीवों के जीवपने को जानना __ चाहिए, २. फिर यह भी जानना चाहिये कि सभी जीवों को कष्ट अप्रिय होता है तथा ३. इन दोनों बातों को जानकर किसी भी प्राणी की हिंसा नहीं करनी चाहिए। अर्थात् हिंसा करने से बचने का प्रयास आदमी तभी कर सकता है जबकि वह प्रथम दो बातों को जानता हो। इसी ग्रन्थ के प्रथम खण्ड में कहा है १. सूत्रकृतांग सं०-६० अ० ओझा, प्र० श्र , तृतीय खण्ड, अध्ययन ११, पृ०१०, ५१ प्रथम खण्ड, पृ० १८४, १८६, गाथा ९,१० भी देखें । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002125
Book TitleJain Dharma me Ahimsa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBasistha Narayan Sinha
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2002
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy