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जैन दृष्टि से अहिंसा
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लड़नेवाले बहुत से सैनिक हिंसा करते हैं लेकिन उस हिंसा के फल का भागी सिर्फ आदेश देने वाला सेनानायक या राजा होता है।'
हिंसा के पोषक तत्त्व :
हिंसा, असत्य, स्तेय, अब्रह्मचर्य तथा परिग्रह-ये पाँच आस्रवद्वार माने गये हैं। यद्यपि इन पाँचों की गणना अलग-अलग होती है, इनमें हिंसा पाप संचय का बहत बड़ा साधन है और अन्य चार अन्ततोगत्वा इसी की पुष्टि करते हैं। किस प्रकार अन्य चार हिंसा का पोषण करते हैं, इसका एक अच्छा विश्लेषण "पुरुषार्थसिद्धयुपाय" में मिलता है । इसमें साफ-साफ कहा गया है--
हिंसातोऽनृतवचनात्स्तेयादब्रह्मतः परिग्रहतः । कान्यक देश विरतेश्चारित्रं जायते द्विविधम् ॥४०॥ निरतः कात्स्न्यं निवृत्तौ भवति यातः समयसारभूतोऽय । या त्वेकदेशविरतिनिरतस्तस्यामुपासको भवति ॥ ४१ ।। आत्मपरिणामहिंसनहेतुत्वात्सबमेव हिसतत् । अनृतवचनादि केगल मुदाहृत शिज्यबोधाय ।। ४२ ॥
अर्थात् हिंसा, असत्य, चोरी, कुशीलता ( अब्रह्म वयं ) तथा परिग्रह को सब तरह से सब स्थान पर त्यागने को सकलचारित्र तथा एक देशविशेष पर त्याग करने को देश वारित्र कहते हैं । यद्यपि शिष्यों को समझाने के लिए इन्हें भेद करके कहा जाता है, वास्तव में आत्मा के शुद्धोपयोगरूप परिणामों का घात होने के कारण ये सभी हिंसा ही हैं ।२ आगे विश्लेषण करके यह बताया जाता है कि किस प्रकार ये हिंसा की पुष्टि करते हैं
असत्य-असत्य के चार भेद होते हैं --१. द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव से अस्तिरूप को नास्ति कहना, २. नास्ति को अस्ति कहना ३. जो वस्तु विद्यमान हो उसकी जगह पर कोई १. एक: करोति हिसां भवन्ति फल नागिनो बहवः ।
बहवो विदधाति हिसां हिंसा कासग्नमत्येताः ॥५५।। -पुरुषार्थसिद्धयुपाय । २. पुरुषार्थसिद्धयुपाय, श्लोक ४०-४२.
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