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________________ १६८ जैन धर्म में हिंसा भागी होगा । इसी में आगे कहा गया है - 'किसी ने हिंसा करने का विचार किया परन्तु अवसर न मिलने से उस हिंसा के करने के पहिले ही उन कषाय- परिणामों के द्वारा ( जिनसे हिंसा का संकल्प किया गया था ) बंधे हुए कर्मों का फल उदय में आ गया, पश्चात् इच्छित हिंसा करने को समर्थ हो सका ऐसी अवस्था में हिंसा करने से पहिले ही उस हिंसा का फल भोग लिया जाता है । इसी प्रकार किसी ने हिंसा करने का विचार किया और इस विचार द्वारा बांधे हुए कर्मों के फल के उदय में आने की अवधि तक वह उक्त हिंसा करने को समर्थ हो सका तो ऐसी दशा में हिंसा करते ही उसका फल भोगना सिद्ध होता है । किसी ने सामान्यत: हिंसा करके पश्चात् उसका उदय काल में फल पाया अर्थात् कर चुकने पर फल पाया। किसी ने हिंसा करने का आरम्भ किया था, परन्तु किसी कारण हिंसा करने में शक्तिवान् नहीं हो सका, तथापि आरंभजनित बंध का फल उसे अवश्य ही भोगना पड़ेगा; अर्थात् न करने पर भी हिंसा का फल भोगा जाता है । प्रयोजन केवल इतना ही है कि कषायभावों के अनुसार फल मिलता है ।' २ ऐसा भी होता है कि हिंसा एक व्यक्ति करता है परन्तु फल भोगनेवाले अधिक होते हैं, यह तब होता है जब किसी के द्वारा की गई हिंसा को देखकर अन्य बहुत से लोग उसका अनुमोदन करते हैं और प्रसन्न होते हैं । कभी-कभी हिंसा बहुत से लोग करते हैं किन्तु उसके फल का भागी एक ही व्यक्ति होता है, जैसे युद्ध में १. विधायापि हिहिंसां हिसाफलभाजनं भवत्येकः । कृत्वाप्यपरो हिसां हिसाफलभाजनं न स्यात् ।। ५१|| एकस्यालहिंसा ददाति काले फलमनलम् । घन्यस्व महाहिंसा स्वल्पफला भवति परिपाके ॥५२॥ एकस्य से तीव्रं दिशति फलं सैन मन्दमन्यस्य । व्रजति सहकारिणोरपि हिंसा वैचित्र्यमत्र फलकाले ।। ५३ ।। २. प्रागेव फलति हिंसाऽक्रियाणा फलति फलति च कृतापि । प्रारभ्य कर्तुमकृतापि फलति हिसानुभावेन ॥ ५४ ॥ Jain Education International - पुरुषार्थसियुपाय For Private & Personal Use Only वही www.jainelibrary.org
SR No.002125
Book TitleJain Dharma me Ahimsa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBasistha Narayan Sinha
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2002
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size13 MB
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