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________________ जैन दृष्टि से हिंसा घात करता है, वह निश्चय ही ज्ञानावरणादि आठ कर्मों से प्रकृतिस्थित्यादि बन्धन में पड़ता है । जिस जीव का अशुद्ध चैतन्य विकारपरिणाम, इन्द्रियविषय तथा क्रोधादि कषाय इनसे अत्यंत गाढ़ हो मिथ्या शास्त्रों का सुनना, आर्त- रौद्र अशुभ ध्यानरूप मन, पराई निंदा आदि चर्चा, इनमें उपयोग सहित हो, हिंसादि आचरण करने में महाउद्यमी हो और वीतराग सर्वज्ञकथित मार्ग से उलटा जो मिथ्यामार्ग उसमें सावधान हो, वह परिणाम अशुभोपयोग है' इसी प्रकार मूलाचार आदि में भी कहा है कि हिंसा पाप है, दोषआस्रवद्वार है । हिंसा, असत्य आदि आस्रवों से पापकर्म आता है तथा जीवों का नाश होता है । जिस प्रकार छिद्रवाली नाव जल में डूब जाती है, उसी प्रकार हिंसादि आस्रवों से जीव संसारसागर में डूब जाता है | २ पुरुषार्थसिद्ध्युपाय में कहा गया है कि जिस व्यक्ति के कार्य में हिसारूपता यानी कषाय--प्रमाद, क्रोधादि नहीं आये तो वह हिंसा का फल नहीं देगा यद्यपि उसके कार्य से किसी जीव का घात ही क्यों न हो गया हो और ठीक इसके विपरीत यदि किसी के परिणाम में हिंसारूपता आ जाती है यानी कर्ता कषायवश हो जाता है तो उसे हिंसा का फल भोगना पड़ता है, भले ही उसके द्वारा किसी का घात नहीं हुआ हो । ठीक इसी तरह जो व्यक्ति बाह्य हिंसा कम करता है, किन्तु परिणाम यानी हिंसाभाव में अधिक लिप्त रहता है तो उसे तीव्र कर्मबंध का भागी होना पड़ता है और जो व्यक्ति बाह्य हिंसा तो अचानक अधिक कर जाता है लेकिन हिंसाभाव में कम लिप्त रहता है तो उसे मंद कर्मबंध का भागी होना पड़ता है । यदि दो व्यक्ति मिलकर हिंसा करते हैं तो दोनों में जिसका कषायभाव तीव्र होगा वह हिंसा के अधिक फल का १. प्रवचनसार, अ. २, गाथा ५७, ६६. २. मूलाचार, बृहत्प्रत्याख्यान संस्तरस्तवाधिकार, गाथा ४१; पंचाचाराधिकार, गाथा २३८, २३६; द्वादशानुप्रेक्षाधिकार, गाथा ७३६. Jain Education International १६७ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002125
Book TitleJain Dharma me Ahimsa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBasistha Narayan Sinha
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2002
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size13 MB
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