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जैन धर्म में अहिंसा
अन्यवस्तु बताना, ४. इस असत्य के अन्दर तीन भेद होते हैं१. गहित, २. सावध अर्थात् पापसहित और ३. अप्रिय ।' । गहित : दुष्टता अथवा चुगलीरूप, हास्ययुक्त, कठोर, मिथ्या
श्रद्धानपूर्ण, प्रलापरूप तथा अन्य जो शास्त्र विरुद्ध हैं। सावध : छेदने, भेदने, मारणे, शोषणे अथवा व्यापार, चोरी आदि
के वचन हैं वे सब पापजनक हैं क्योंकि इनसे हिंसादि
पाप प्रवृत्तियों का सृजन होता है। अप्रिय : जो शब्द किसी जीव की अप्रीति, भय, खेद, वैर, शोक,
___कलह आदि पैदा करनेवाला है वह सब अप्रिय है।
चूंकि ये सभी बचन कषाययुक्त होते हैं यानी ये प्रमादसहित होते हैं और प्रमाद ही हिंसा का कारण है, अतः ये सब बचन भी हिंसा ही हुए। कभी पाप की निन्दा करते हुए मुनिजन उपदेश देते हैं और ये बचन पापियों के लिए अत्यन्त कष्टदायक होते हैं, किन्तु उनके बचनों में प्रमाद नहीं होता। अतः वे अन्त या असत्य भाषण के दोष से बच जाते हैं।
स्तेय-चोरी भी हिंसा ही है। क्योंकि इसमें भी प्राणवध होता है और यह भी कषाय के कारण ही होती है। अन्य जीव १. वही, श्लोक ६२-६५.
पैशून्यहासगर्भ कर्कशमसमञ्जसं प्रलपितं च । अन्यदपि यदुत्सूत्रं तत्सर्व गर्हितं गदितम् ।।६।। छेदनभेदनमारणकर्षणवाणिज्यचौर्यवचनादि । तत्सावधं यस्मात्प्राणिवधाद्याः प्रवर्तन्ते ॥१७॥ परतिकरं भीतिकरं खेदकरं वैरशोककलहकरम् । यदपरमपि तापकरं परस्य तत्सर्वमप्रियं ज्ञेयम् ॥१८॥ सर्वस्मिन्नप्यस्मिन्प्रमत्तयोगैकहेतुकथनं यत् । अनुतवचनेऽपि तस्मान्नि यतं हिंसा समवतरति IIEI हेती प्रमत्तयोगे निर्दिष्टे सकलवितथवचनानाम् । हेयानुष्ठानादेरनुवदनं भवति नासत्यम् ।।१००।-पुरुषार्थसिद्धयुपाय । पवितीर्णस्य ग्रहणं परिग्रहस्य प्रमत्तयोगाद्यत् । तत्प्रत्येयं स्तेयं सैव च हिंसा वधस्य हेतुत्वात् ॥१०॥
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