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जैन धर्म में हिंसा
आहार ग्रहण करता है, परिवर्तनशील, चय- उपचय वाला, तथा अनित्य एवं अशाश्वत है ठीक उसी तरह वनस्पतिकाय का शरीर भी होता है यानी वनस्पतिकाय भी इन सभी गुणों को धारण करनेवाला होता है । किन्तु प्रमादवश व्यक्ति अपने मान-सम्मान, पूजा - प्रतिष्ठा, अन्य सुख-सुविधाओं को ध्यान में रखते हुए इसकी हिंसा विभिन्न रूपों में करता है, कराता है तथा करनेवाले का अनुमोदन करता है ।'
त्रसकाय -- विषयकषायादि के वशीभूत आतुर एवं अस्वस्थ चित्तवाले व्यक्ति अपने अनेक प्रकार के स्वार्थों की पूर्ति के निमित्त विभिन्न सकाय जीवों को कष्ट पहुँचाते हैं । त्रसजीव पृथ्वी, पानी, वायु के आश्रित सभी स्थानों पर पाये जाते हैं। प्रमादी जीव पूजा-प्रतिष्ठा, मान-सम्मान, विभिन्न दुःखों से मुक्ति पाने के उद्देश्य से सकाय जीवों की हिंसा करते हैं, दूसरे से कराते हैं और करनेवालों का अनुमोदन भी करते हैं ।
'इस संसार में अनेक जीव देवी-देवताओं की पूजा के लिए, कई चर्म के लिए या मांस, खून, हृदय, पित्त, चरबी, पंख, पूँछ, केश, श्रृंग-सींग, विषाण, दन्त, दाढ़, नाखून, स्नायु, अस्थि, मज्जा, आदि पदार्थों के लिए, प्रयोजन या निष्प्रयोजन से अनेक प्राणियों का वध करते हैं, कुछ व्यक्ति इस दृष्टि से भी सिंह, सर्प आदि जन्तुओं का वध करते हैं कि उन्होंने मेरे स्वजन स्नेहियों को मारा है, यह मुझे मारता है तथा भविष्य में मारेगा । 3
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श्राचारांग सूत्र -- श्रात्मारामजी, प्र० श्रु० प्र० प्र०, उ०५, सूत्र ४६; तथा " से बेमि इमपि जाइधम्मयं, एयंपि जाइधम्मयं, इमपि बुड्ढधम्मयं, एपि वुढिम्मयं इमपि चित्तमंतयं, एपि चित्तमंतयं इमपि छिण्णंमिलाइ, एयंपि छिण्णं मिलाइ, इमपि श्राहारगं, एयंपि श्राहारगं, इमपि प्रणिच्चयं, एयंपि णिच्चयं, इमपि प्रसासयं एयपि प्रसासयं, इमंपि चप्रोवचइयं एयंपि चप्रोवचइयं, इमपि विपरिणामधम्मयं, एयंपि विपरिणामधम्मयं ॥ ४७ ॥ वहीं, सू० ४७.
२. प्राचारांग सूत्र, प्र० श्रु०, प्र०प्र०, उद्द े०६, सूत्र ५१-५३.
३. वही, सूत्र ५४.
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