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________________ १५१ जैन दृष्टि से अहिंसा हिंसा करता हुआ अन्य अनेक जीवों की भी हिंसा करता है। .........."अग्निकाय के आरम्भ में विभिन्न जीवों की हिंसा होती है,............"। पृथ्वी के आश्रय में तथा तृण, काष्ठ, गोबर, कड़ा-करकट के आश्रय में निवसित विभिन्न तरह के अनेक जीव और इसके अतिरिक्त आकाश में उड़नेवाले जीव-जन्तु, कीट-पतंग एवं पक्षी आदि जीव भी कभी प्रज्वलित आग में आ गिरते हैं और उसके (आग के) संस्पर्श से उनका शरीर संकुचित हो जाता है और वे मूछित होकर अपने प्राणों को त्याग देते हैं।' सूत्रकृतांग में कहा है कि आग जलानेवाला पुरुष जीवों की हिंसा करता है और जो आग बुझाता है वह अग्निकाय जीवों की हिंसा करता है। इसलिए ज्ञानी पुरुष अग्निकाय जीव का घात करने से बचें। वायुकाय--इस निःसार जीवन की सुख-सुविधा, प्रशंसा, तथा जन्म-मरण के कष्ट से निवारण के लिये प्रमाद के वशीभूत हआ व्यक्ति वायुकाय जीवों का नाश करता है। जो जीव उड़ते हैं वे वायु के चक्र में आ जाने से मछित होकर नीचे आ जाते हैं, उनके शरीर में संकोच आ जाता है और उनके प्राणान्त हो जाते हैं। इस प्रकार वायुकाय जीवों का आरम्भ होता है। जो इस आरम्भ से निवृत्त न हो पाते हैं वे अपरिज्ञात कहे जाते हैं और जो निवृत्त हो जाते हैं वे परिज्ञात । वनस्पतिकाय--मनुष्य शरीर जिस तरह जन्म धारण करता है, बढ़ता है, चेतना धारण करता है, छेदन-भेदन से मी जाता है, १. प्राचारांग सूत्र आत्मारामजी, प्र०N०, प्र०अ०, उद्दे० ४, सूत्र ३७-३८. २. सूत्रकृतांग, अध्ययन ७, सूत्र ५-७. तत्थ खलु भगवया परिण्णा पवेइया, इमस्स चेव जीवियस्स परिवंदणमाणणपूयणाए-जाईमरणमोषणाए दुक्खाडिधायहे उसे सयमेव वाउसत्थं समारंभति, अण्णेहिं वा वाउसत्थं समारंभावेइ, अण्णे वाउसत्थं समारंभंते समणुजाणति, तं ।।५६॥ आचारांग, प्र०प०,उद्दे०७, सूत्र ५६ तथा ६०. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002125
Book TitleJain Dharma me Ahimsa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBasistha Narayan Sinha
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2002
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size13 MB
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