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जैन धर्म में अहिंसा अप्काय-जो व्यक्ति अज्ञानी तथा प्रमादग्रसित होता है वह प्रशंसा, मान-सम्मान, पूजा-प्रतिष्ठा, जन्म-मरण के दुःख से छटकारा पाने के लिए तथा जीवन की अनेक अभिलाषाओं की पूर्ति के लिए अप्कायिक प्राणियों का स्वयं आरम्भ-समारम्भ करता है, दूसरों से कराता है तथा उन व्यक्तियों की प्रशंसा करता है वा अनुमोदन करता है, जो अप्कायिक प्राणियों का आरम्भ-समारम्भ करते हैं। भगवान महावीर ने माना है कि अप्काय में अप्काय जीवों के पिण्ड होते हैं । इन्होंने अप्काय-जल को सजीव मानते हुए यह भी कहा है कि उसमें द्वीन्द्रिय आदि जीव भी रहते हैं।'
अग्निकाय--........."भगवान् ने परिज्ञा--विशिष्ट ज्ञान से यह प्रतिपादन किया है कि प्रमादी जीव इस क्षणिक जीवन के लिए प्रशंसा, मान-सम्मान एवं पूजा पाने के हेतु, जन्म-मरण से छुटकारा पाने की अभिलाषा से, तथा शारीरिक एवं मानसिक दुःखों के विनाशार्थ स्वयं अग्नि का आरम्भ करते हैं, दूसरे व्यक्ति से कराते हैं
और करनेवाले को अच्छा समझते हैं। ............"यह अग्नि समारंभ अष्ट कर्मों की गाँठ है, यह मोह का कारण है। यह मृत्यु का कारण है और यह नरक का भी कारण है। फिर भी विषय-भोगों में मूछित--आसक्त व्यक्ति अग्निकाय के समारम्भ से निवृत्त नहीं होता। वह प्रत्यक्ष रूप से विभिन्न शस्त्रों के द्वारा अग्निकायिक जीवों की
पडिधाय है से सयमेव पुढविसत्थं समारंभइ, अण्णेहिं वा पुढविसत्थं समारंभावेइ, अण्णे वा पुढविसत्थं समारंभते समणुजाणइ ॥१६॥ प्राचारांग सूत्र-प्रात्मारामजी, प्र० श्रुतस्कंध, प्र० अध्ययन, उद्देशक २, पृष्ठ ७३-७४, ७७-७८, ८२-८३. . तत्थ खलु भगवता परिण्णा पवेदिता इमस्स चेव जीवियस्स परिवंदणमारणण-पूयणाए-जाइ.मरण मोयगए दुक्ख पडिघाय है उसे सयमेव उदयसत्थं समारंभति, अणणेहिं वा उदयसत्थं समारंभावेति, अण्णे उदयसत्थं समारंभंते समणुजाणति । - ॥२४॥ इहं च खलु भो। अरणगाराणं उदय जीवा वियाहिया ॥२५।। सत्थं चेत्थं अणुवीइ पासा, पढी सत्थं पवेइयं ॥२६॥ भाचारांग-मात्मारामजी, प्र० श्रु०, प्र० प्र०, उद्द० ३.
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