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________________ जैन दृष्टि से हिंसा क्रोधादि से सर्वप्रथम अपना आत्मघात होता है । या परहिंसा होती है । ' कायों की हिंसा : आचारांग सूत्र के 'शस्त्रपरिज्ञा' अध्ययन में षट्कायों की हिंसा का वर्णन मिलता है पृथ्वी काय -- विषय - कपायादि क्लेशों से पीड़ित, ज्ञान-विवेक से रहित दुर्लभबोधि प्राणी इन व्यथित, पीड़ित एवं दुःखित पृथ्वीकायिक जीवों को खान खोदने आदि अनेक तरह के कार्यों के लिए परिताप देते हैं, उन्हें विशेष रूप से संतप्त करते हैं, दुःख एवं संक्लेश पहुँचाते हैं । कुछ विचारक अपने आपको अनगार, त्यागी एवं जीवों के संरक्षक होने का दावा करते हुए भी अनेक तरह के शस्त्रास्त्रों से पृथ्वीकाय का आरम्भ समारम्भ करके जीवों की हिंसा करते हैं। आरम्भ समारम्भ एवं पृथ्वी के शस्त्र से वे पृथ्वीकाय के जीवों का ही नहीं अपितु इसके आश्रय से रहे हुए पानी, वनस्पति, द्वीन्द्रिय-त्रीन्द्रिय आदि जीवों का भी घात करते हैं । कुछ लोग इस जीवन के लिए, प्रशंसा पाने के हेतु, मान-सम्मान, पूजा, प्रतिष्ठा की अभिलाषा से जन्म-मरण से छुटकारा पाने तथा दुःखों का उन्मूलन करने की अभिलाषा रखते हुए पृथ्वीकाय के जीवों का घात करनेवाले शस्त्र का स्वयं प्रयोग करते हैं, दूसरे व्यक्ति से कराते हैं और शस्त्र का प्रयोग करनेवाले का अनुमोदन - समर्थन करते हैं | 2 १. यस्मात्कषाय: सन् हन्त्यात्मा प्रथममात्मनात्मानम् । पश्चाज्जायते न वा हिंसा प्राण्यन्तराणां तु ॥ ४७ ॥ - पुरुषार्थं सिद्ध्युपाय | १४६ फिर परघात २. श्रट्टे लोए परिजुण्णे दुस्सबोहै श्रविजारणए । प्रस्सि लोए पव्वहिए तत्थ तत्थ पुढो पास प्रारा परितार्वेति ॥ १४ ॥ अणगारमोति एगे पवयमाणा जमिणां विरूवेहि सत्थेहि पुढविकम्म समारंभेणं पुढविसत्थं समारंभेमाणा श्री गरूवे पारणे विहिंसह || १५ || जोवियस्स परिवण, माणण, पूरणाए, जाइ मरणमोयणाए, दुक्ख Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002125
Book TitleJain Dharma me Ahimsa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBasistha Narayan Sinha
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2002
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size13 MB
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