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________________ १४८ जैन धर्म में हिंसा १७. णिद्धमो - निर्धर्म - श्रुतचारित्र रूप धर्म से वर्जित । १८. णिप्पिवासो - निष्पिपासः - - प्राणियों के प्रति स्नेहरहित । १६. णिक्कलुणो – निष्करुण - दया भाव से रहित । २०. निरयवासनिघणगमो निरयवासनिधनगम : - निरयवास, नरकवास ही जिसका अन्तिम फल है । २१. मोहम हब्भयपयट्टओ - - मोहमहाभयप्रवर्तक :- मोह अज्ञानरूप महाभय को देनेवाली । २२. मरणवेमणस्सो - मरणवैमनस्य - - मृत्यु का कारण होने से प्राणियों में दीनता आती है अतः यह मरण वैमनस्य रूप है । स्वहिंसा और परहिंसा : हिंसा करने से प्रायः समझा जाता है दूसरों को पीड़ा पहुँचना । एक व्यक्ति क्रोधित होकर दूसरे को मारता है तो निश्चित ही उसे कष्ट पहुँचता है जिसे मार पड़ती है । मार खानेवाले व्यक्ति को शारीरिक क्षति पहुँचती है और इसका प्रभाव उसके मन पर पड़ता है । इस प्रकार वह शारीरिक कष्ट पाने के साथ-साथ मानसिक पीड़ा भी पाता है । और उस पक्ष को जो दूसरे को मारने वाला होता है, सभी कष्टों से मुक्त समझा जाता है। यानी दूसरे को मारने में मारनेवाले को कोई कष्ट नहीं होता । किन्तु ऐसा सोचना सर्वथा गलत है । जब व्यक्ति के मन में कषाय का जागरण होता है तब वह क्रोधित होता है और दूसरे को मारता पीटता है, गालियाँ देता है। ऐसी स्थिति में उसके मन और तन दोनों में ही विकृति आ जाती है । उसके मन की शान्ति लुट जाती है, वह तरह-तरह की योजनाएँ बनाता है और शरीर में तो तनाव आ ही जाती है । फिर वह दूसरों को कष्ट पहुँचाता है । इन दोनों ही स्थितियों में से प्रथम तो मारने वाले का आत्मघात करती है और दूसरी परघात करती है । तात्पर्य यह कि क्रोधादि मानसिक विकार से पहले मारनेवाले की आत्मा का घात होता है और बाद में वह दूसरों को कष्ट पहुँचाता है । इन दोनों स्थितियों के लिए ही स्वहिंसा तथा परहिंसा का प्रयोग होता है अर्थात् Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002125
Book TitleJain Dharma me Ahimsa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBasistha Narayan Sinha
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2002
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size13 MB
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