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________________ (१२) हो सकी और न शोधकार्य ही पूर्णता की ओर बढ़ पाया। इसी बीच भाई अमरनाथ जायसवाल से भेंट हुई और उनकी सलाह एवं अपनी परिस्थिति को देखते हुए अप्रैल १६६५ में बनारस लौट आया। बनारस आकर जब शोधकार्य के सम्बन्ध में मैंने स्थिति का आकलन किया तो पाया कि मैं उसी स्थान पर था, जहाँ पर कलकत्ता जाने से पूर्व था । ऐसा देखकर मैं कुछ दिनों तक 'किंकर्तव्य विमूढ़' की स्थिति में रहा । तब बन्धुवर मेजर श्री महावीर सिंह की राय पाकर मैं फिर पार्श्वनाथ विद्याश्रम के नये अध्यक्ष डॉ. मोहनलाल मेहता से मिला, जिन्होंने अपने निरीक्षण में कार्य करने और दो सौ रुपये मासिक छात्रवृत्ति देने की सहमति दी। उनकी सहमति से मुझे बहुत बड़ा बल मिला और फिर 'जैन धर्म में अहिंसा-विचार' विषय लेकर नये पंजीकरण के साथ जुलाई १९६५ से मैंने नया शोधकार्य प्रारम्भ किया। इस बार मेरा शोध-प्रबन्ध ठीक समय पर पूरा हो गया और अक्टूबर १९६७ में मैंने उसे परीक्षा हेतु जमा कर दिया, जिसके फलस्वरूप काशी विश्वविद्यालय के सन् १९६७ के दीक्षान्त समारोह में मुझे डॉक्टर बनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। आज मेरा शोध प्रबन्ध 'जैन धर्म में अहिंसा' के नाम से छपकर पुस्तक के रूप में आपके सामने है । पुस्तक में कुल छः अध्याय हैं। प्रथम अध्याय है 'जैनेतर परम्पराओं में अहिंसा' । इस अध्याय में यह दिखलाने का प्रयास किया गया है कि जैन परम्परा, जिस पर शोध-प्रबन्ध आधारित है, के अलावा अन्य परम्पराओं में अहिंसा को कौनसा स्थान प्राप्त है । यद्यपि शोध-प्रबन्ध में मैंने मात्र वैदिक एवं बौद्ध परम्पराओं के ही अहिंसा-सम्बन्धी सिद्धान्तों को प्रस्तुत किया है पर प्रस्तुत पुस्तक में सिक्ख, पारसी, यहूदी, ईसाई, इस्लाम, ताओ आदि विश्व की प्रमुख परम्पराओं में अहिंसा के सिद्धान्त को दी गई मान्यताओं पर प्रकाश डालने की आकांक्षाओं को मैं रोक नहीं पाया, इस वजह से यह अध्याय काफी लम्बा हो गया है। द्वितीय अध्याय है 'अहिंसा-सम्बन्धी जैन साहित्य' । यों तो जैन धर्म के मूल में ही अहिंसा है और प्राय: इसकी सभी धार्मिक एवं दार्शनिक रचनाओं में हिंसाअहिंसा की थोड़ी बहुत झलक मिल ही जाती है। फिर भी कुछ ऐसे ग्रन्थ हैं जिनमें हिंसा-अहिंसा की पूर्ण विवेचना मिलती है। उन ग्रन्थों का परिचय एवं उनमें किन-किन स्थानों पर हिंसा-अहिंसा का विश्लेषण हुआ है, उनका संकेत इस अध्याय में किया गया है। इससे एक लाभ तो यह है कि अहिंसा के विषय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002125
Book TitleJain Dharma me Ahimsa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBasistha Narayan Sinha
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2002
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size13 MB
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